बस्ती बस्ती ख़ाक उड़ाये, बस वहशत का मारा हो
उससे इश्क़ की आस न करना जिसका मन बंजारा हो
सारे तारों की नीयत में एक ही पहलू ठहरा है
चाहे क़ीमत कोई भी हो, लेकिन चाँद हमारा हो
क़तरा क़तरा रोना भी क्या हिज्र के मौसम का रोना?
चश्मे-तर मम्बा हो जाये मू-ए-मिज़ा फव्वारा हो
बचपन की भी ख़्वाहिश देखो तकते रहते थे अम्बर?
ख़्वाबों की हसरत थी सैर को परियों का सय्यारा हो
इतना कह कर छोड़ आया मैं उसके कूचे को परसों
जा मेरा दिल तोड़ने वाले, तुझको इश्क़ दुबारा हो
यार सियासी तलवारों को पीना है हर रोज़ लहू
चाहे लाश प लाश बिछें या ख़ूँ से तर गहवारा हो
ख़ुद को शाइर कहते रहना दिल को लाख सुकूँ दे दे
लेकिन दुनिया की नज़रों में तुम अब भी आवारा हो
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