इरादा रख मुहब्बत का हमें वो आज़माते हैं
हमारा जलवा तक भी तो नहीं दिलबर उठाते हैं
नज़र से वार करते हैं करें ज़ख़्मी मुहब्बत में
वो हरदम ज़हर वाले तीर आँखों से चलाते हैं
उठा कर चलते ज़िम्मेदारी की गठरी हमेशा ही
मुहब्बत को हमारी वो तमाशा सा बताते हैं
ज़माना ख़ूबसूरत कहके बैठाता हमें पलकों
न जाने क्यों नज़र वो हम से हरदम ही चुराते हैं
नहीं करते लबों से प्रीत वो इज़हार ये माना
भरें आगोश में बेबात यूँ चाहत जताते हैं
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