तिलिस्म-ए-यार ये पहलू निकाल लेता है
कि पत्थरों से भी ख़ुशबू निकाल लेता है
है बे-लिहाज़ कुछ ऐसा की आँख लगते ही
वो सर के नीचे से बाज़ू निकाल लेता है
कोई गली तेरे मफ़रूर-ए-दो-जहाँ की तरफ़
नहीं निकलती मगर तू निकाल लेता है
ख़ुदा बचाए वो कज़ाक शहर में आया
हो जेब खाली तो आँसू निकाल लेता है
अगर कभी उसे जंगल में शाम हो जाए
तो अपनी जेब से जुगनू निकाल लेता है
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