सुकूँ से रात बिताते थे मौज करते थे
जब उसके ख़्वाब न आते थे मौज करते थे
फ़ुज़ूल आ गए सहरा से शहर में हम लोग
वहाँ पे ख़ाक उड़ाते थे मौज करते थे
घिरे हुए हैं ज़माने के अब अज़ाबों से
ये लोग नाचते गाते थे मौज करते थे
किसी के रंग में ढलने से हो गए बे-रंग
हम अपने रंग बनाते थे मौज करते थे
अमीरे शहर के पकवान से हुए बीमार
नमक से रोटियाँ खाते थे मौज करते थे
हम उसकी बज़्म में ताख़ीर से गए हर बार
जो लोग वक़्त पे आते थे मौज करते थे
Our suggestion based on your choice
As you were reading Shayari by Varun Anand
our suggestion based on Varun Anand
As you were reading Rang Shayari