तेरे हाथों में है क्यों ख़ंजर हसीना

  - Anuj Vats

तेरे हाथों में है क्यों ख़ंजर हसीना
काम हो आँखों से तो बेहतर हसीना

मेरे कहने से कहाँ होता है अब कुछ
हो वही कह दे जो भी हँस कर हसीना

हर कोई दफ़्तर के चक्कर काटता है
बन के आई गाँव में अफ़सर हसीना

क्यों बदलती है वो कपड़े रील्स में अब
हो गई है सच में क्या बे-घर हसीना

ये दुकान-ए-हुस्न कब तक यूँ चलेगी
मान मेरी काम भी कुछ कर हसीना

आशिक़ों का हाल भी तो देख बेरहम
मुँह दिखाना है ख़ुदा को डर हसीना

बाल बिखरे होंठ पे है ज़ख़्म गोया
सच कहो कोई तो है चक्कर हसीना

मेरी ग़ज़लों से मेरी आँखों से डरती
सामने काँपे मेरे थर थर हसीना

है शिकायत एक ही दुनिया से यारो
क्यों नहीं है मुझको हासिल हर हसीना

गुल खिले रहते हैं गुलशन में हज़ारों
पर अकेली होती है अक्सर हसीना

  - Anuj Vats

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