Akhtar Bastavi

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@akhtar-bastavi

Akhtar Bastavi shayari collection includes sher, ghazal and nazm available in Hindi and English. Dive in Akhtar Bastavi's shayari and don't forget to save your favorite ones.

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  • Ghazal
लाख हरबे सही हर वज़्अ के शैतान के पास
ढाल ईमान की मौजूद हो इंसान के पास

मुल्क समझो उसे पामाल बजा है इक दीन
अब तो बस इक यही दौलत है मुसलमान के पास

लगते ही तीर तुम्हारा गई यूँ जान निकल
बैठ कर जाती घड़ी दो घड़ी मेहमान के पास

आदमियत ही तो बुनियाद है हर ख़ूबी की
हो न ये भी तो धरा क्या है फिर इंसान के पास

सोहबत यार है ऐ दिल तुझे घर बैठे नसीब
फिर तिरा काम है क्या हाजिब-ए-दरबान के पास

ख़्वाहिशें नफ़्स की करते तो हो पूरी लेकिन
इस से बेहतर नहीं आला कोई शैतान के पास

हम ने दिल भर के कुछ इस तरह निकाले अरमाँ
कि फटकता नहीं दिल जा के अब अरमान के पास

मत समझना इन्हें कम-माया ग़नी हैं ये लोग
कंज़-ए-मख़्फ़ी है हर इक साहिब-ए-ईमान के पास

जुब्बा-साई की भी कुछ होगी तुम्हीं को उम्मीद
गालियाँ खाते हो जा जा के दरबान के पास
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है रश्क क्यों ये हम को सर-ए-दार देख कर
देने हैं बादा ज़र्फ़-ए-क़दह-ख़्वार देख कर

ख़ुद-कर्दा-ए-अज़ल से तजल्ली-ए-तूर के
झपके की आँख क्या तिरी तलवार देख कर

आसाँ-पसंदियों से हैं बेज़ार अहल-ए-इश्क़
छाँटा ये मरहला भी है दुश्वार देख कर

बन जाएगा ये रिश्ता-ए-तस्बीह एक दिन
धोका न खाइयो कहीं ज़ुन्नार देख कर

इस शान-ए-इम्तियाज़ को कि अहल-ए-तहाइफ़
मोमिन समझ रहे हैं हमें ख़्वार देख कर

जिंस-ए-गिराँ तो थी नहीं कोई मगर ये जान
लाए हैं हम भी रौनक़-ए-बाज़ार देख कर

तीर-ए-निगह ने कर दिया दोनों का फ़ैसला
बाहम दिल-ओ-जिगर में ये तकरार देख कर

ये क्या कि सज्दा-गाह है हर संग-ए-आस्ताँ
घिसना जबीन को को ख़ाना-ए-ख़म्मार देख कर

कुछ भी तो ज़ब्त-ए-गिर्या न शबनम से हो सका
बुलबुल को फ़स्ल-ए-गुल में गिरफ़्तार देख कर

हम ख़ासगान-ए-अहल-ए-नज़र और ये क़त्ल-ए-आम
जौर-ओ-सितम भी कर तू सितमगार देख कर

हर सीना आज है तिरे पैकाँ का मुंतज़िर
हो इंतिख़ाब ऐ निगह-ए-यार देख कर
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सोज़-ए-दरूँ से जल-बुझो लेकिन धुआँ न हो
है दर्द-ए-दिल की शर्त कि लब पर फ़ुग़ाँ न हो

फिर हो रहा है शोर-ए-सला-ए-नबर्द-ए-इश्क़
हाँ ऐ दहान-ए-ज़ख़्म जवाब अल-अमाँ न हो

बाज़ार-ए-जाँ-फ़रोश में सौदा न हो ये क्या
गाहक मिले तो जिंस तो ये भी गराँ न हो

इस दर्द-ए-ला-जवाब की क्यूँकर करूँ दवा
वो हाल-ए-दिल-नशीं भी तो मुझ से बयाँ न हो

क्या फ़ाएदा गर उस ने छुपाया भी दर्द-ए-दिल
ये काम जब बने कि मिज़ा ख़ूँ-चकाँ न हो

क्या कीजे चुन के माएदा-ए-दिल को लख़्त लख़्त
तेरा ही तीर सीने में जब मेहमाँ न हो

ख़ौफ़-ए-रक़ीब का तो ये आलम और उस पे इश्क़
सब चाहते हैं चाह का उन पर गुमाँ न हो

है वस्ल-ए-यार की भी तमन्ना का हौसला
डर ये भी है कि तब्अ'-ए-अदू पर गिराँ न हो

पहलू से दिल को ले के वो कहते हैं नाज़ से
क्या आएँ घर में आप ही जब मेज़बाँ न हो

सुनते ही जिस के ख़ल्क़ से कोहराम मच गया
'जौहर' वो तेरी ही तो कहीं दास्ताँ न हो
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Akhtar Bastavi