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है रश्क क्यों ये हम को सर-ए-दार देख कर  - Akhtar Bastavi

है रश्क क्यों ये हम को सर-ए-दार देख कर
देने हैं बादा ज़र्फ़-ए-क़दह-ख़्वार देख कर

ख़ुद-कर्दा-ए-अज़ल से तजल्ली-ए-तूर के
झपके की आँख क्या तिरी तलवार देख कर

आसाँ-पसंदियों से हैं बेज़ार अहल-ए-इश्क़
छाँटा ये मरहला भी है दुश्वार देख कर

बन जाएगा ये रिश्ता-ए-तस्बीह एक दिन
धोका न खाइयो कहीं ज़ुन्नार देख कर

इस शान-ए-इम्तियाज़ को कि अहल-ए-तहाइफ़
मोमिन समझ रहे हैं हमें ख़्वार देख कर

जिंस-ए-गिराँ तो थी नहीं कोई मगर ये जान
लाए हैं हम भी रौनक़-ए-बाज़ार देख कर

तीर-ए-निगह ने कर दिया दोनों का फ़ैसला
बाहम दिल-ओ-जिगर में ये तकरार देख कर

ये क्या कि सज्दा-गाह है हर संग-ए-आस्ताँ
घिसना जबीन को को ख़ाना-ए-ख़म्मार देख कर

कुछ भी तो ज़ब्त-ए-गिर्या न शबनम से हो सका
बुलबुल को फ़स्ल-ए-गुल में गिरफ़्तार देख कर

हम ख़ासगान-ए-अहल-ए-नज़र और ये क़त्ल-ए-आम
जौर-ओ-सितम भी कर तू सितमगार देख कर

हर सीना आज है तिरे पैकाँ का मुंतज़िर
हो इंतिख़ाब ऐ निगह-ए-यार देख कर

- Akhtar Bastavi

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