जब ब-फ़ैज़ान-ए-जुनूँ परचम-ए-ज़र खुलते हैं
क़ुफ़्ल-ए-शब तोड़ के अनवार-ए-सहर खुलते हैं
यूँ उभरती है दिल-ए-तार में उम्मीद की ज़ौ
जैसे ज़िंदाँ के कभी रौज़न-ओ-दर खुलते हैं
ग़म से मिलता है मिरी फ़िक्र को इस तरह फ़राग़
जिस तरह ताइर-ए-पर-बस्ता के पर खुलते हैं
अब्र बरसे तो बयाबाँ में महकती है बहार
लाख मय-ख़ाने सर-ए-राहगुज़र खुलते हैं
जिन को अफ़्ज़ाइश-ए-मंतिक़ ने किया हो तख़्लीक़
ऐसे उक़दे भी कहीं अहल-ए-नज़र खुलते हैं
शैख़ जी अर्सा-ए-जलवत में हैं पाबंद-ए-रुसूम
पर ये ख़ल्वत में बहुत शो'बदा-गर खुलते हैं
फ़हम-ओ-इबलाग़ कोई खेल नहीं है 'अख़्तर'
ख़ून-ए-दिल देने से असरार-ए-हुनर खुलते हैं
Read Full