भले कितना हमें दफ़्तर पुकारे क्या ही आएँगे
मुहब्बत रिज़्क़ हो जिनका कमाने क्या ही आएँगे
मैं अंधा हो गया हूँ अब ज़रा सी बदगुमानी में
कि आँखे फोड़ने के बाद सपने क्या ही आएँगे
अगरचे हुस्न के दम पर तरक़्क़ी मिलनी है तो फिर
बुलंदी पर हुनर लबरेज़ लडक़े क्या ही आएँगे
मिरा बचपन भी गुज़रा है मुहल्ले के फ़सादों में
मिरी जानिब को खिड़की से इशारे क्या ही आएँगे
क़बीले में मुहब्बत की सज़ा में पाँव कटते हैं
हमारे हिस्से में अब सात फेरे क्या ही आएँगे
तिरी ज़ंजीर की खन खन ने बहरा कर दिया मुझको
तिरी पाज़ेब की छन छन को सुनके क्या ही आएँगे
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