मैं तेरे शहर में जलते दिये लाया नहीं होता
जो याद आता कि तारीकी का वाँ पहरा नहीं होता
सलीक़े से छुपाती है वो औरत ज़ख़्म चेहरे के
सभी घूँघट का मक़्सद ग़ैर से पर्दा नहीं होता
जिसे मन्नत में माँगा था वही बेटा रुलाता है
सभी माँ के लिए फल सब्र का मीठा नहीं होता
नहीं होता भरोसा मुझको लँगड़े इश्क़ पर जिसमें
दिवाना वस्ल होता है मगर गुस्सा नहीं होता
यही सब लोग चाहेंगे तुम्हारा काम रुक जाए
कहेंगे होने पर "मेहनत से आख़िर क्या नहीं होता
मैं इतना बोल पाया था "सुनो बच्चों ख़ुदा सबका..."
यतीमों से उठा हल्ला "नहीं होता नहीं होता"
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