Amanullah Khalid

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@amanullah-khalid

Amanullah Khalid shayari collection includes sher, ghazal and nazm available in Hindi and English. Dive in Amanullah Khalid's shayari and don't forget to save your favorite ones.

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  • Ghazal
है मिरी ज़ीस्त तिरे ग़म से फ़रोज़ाँ जानाँ
कौन कहता है मुझे बे-सर-ओ-सामाँ जानाँ

तेरी यादें मिरे हमराह ब-हर-गाम हैं जब
मैं ने समझा ही नहीं ख़ुद को परेशाँ जानाँ

नब्ज़-ए-एहसास बहुत सुस्त हुई जाती है
दिल को दरकार है फिर दर्द का पैकाँ जानाँ

हँसते हँसते नज़र आते थे जहाँ ग़ुंचा-ओ-गुल
वीराँ वीराँ सा लगे है वो गुलिस्ताँ जानाँ

अब न वो सोज़ न वो साज़ है दिल में फिर भी
एक आवाज़ सी आती है कि जानाँ जानाँ

ज़िक्र-ए-माज़ी से गुरेज़ाँ हूँ ये सच है लेकिन
याद है आज भी मुझ को तिरा पैमाँ जानाँ

इतनी तन्हाई का एहसास मुसलसल हो अगर
अपने साए से भी डर जाता है इंसाँ जानाँ

तेरे हाथों की वो मेहंदी वो तिरा सुर्ख़ लिबास
इस तसव्वुर से भी दिल है मिरा लर्ज़ां जानाँ

एक मुद्दत हुई गो अहद-ए-बहाराँ गुज़रे
चाक है आज तलक मेरा गरेबाँ जानाँ

मैं तुझे भूल न पाया तो ये चाहत है मिरी
याद रक्खा है जो तू ने तिरा एहसाँ जानाँ

आज 'ख़ालिद' के ख़यालात की हर राहगुज़र
है तिरे हुस्न के परतव से चराग़ाँ जानाँ
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Amanullah Khalid
घर अपना वादी-ए-बर्क़-ओ-शरर में रक्खा जाए
तअ'ल्लुक़ात का सौदा न सर में रक्खा जाए

अगर तलब हो कभी चंद घूँट पानी की
समुंदरों का तसव्वुर नज़र में रक्खा जाए

सुना है दुख़्तर-ए-तहज़ीब घर से भाग गई
छुपा के बच्चों को हरगिज़ न घर में रक्खा जाए

पता नहीं कि कहाँ रह-ज़नों की हो यलग़ार
कोई दिफ़ाअ' भी रख़्त-ए-सफ़र में रक्खा जाए

बताओ कैसे मिलेगी हमें सहीह ता'बीर
जब अपना ख़्वाब ही चश्म-ए-दिगर में रक्खा जाए

लो अब तो हम भी हवाओं के साथ चलने लगे
हमारा नाम भी अहल-ए-हुनर में रक्खा जाए

किताब ज़ीस्त में बाब-ए-अलम भी हो महफ़ूज़
सियाह-रात का मंज़र सहर में रक्खा जाए

क़फ़स को ले के जो उड़ा जाए गुलिस्ताँ की तरफ़
वो अज़्म ताइर-ए-बे-बाल-ओ-पर में रक्खा जाए
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Amanullah Khalid
कुछ सोचों के कुछ फ़िक्रों के कुछ थे एहसासात के नाम
जितने भी पत्थर आए सब आईना-ए-जज़बात के नाम

उन की निगाहें बे-परवा हैं कुछ भी नहीं जज़्बात के नाम
वक़्फ़ किए हैं जिन लोगों ने दिन के उजाले रात के नाम

तपते हुए सहरा में जैसे शबनम की बे-रंग नुमूद
जाने कितने ख़त लिक्खे हैं मैं ने भी बरसात के नाम

वक़्त के होंटों पे रक़्साँ हैं मस्ती का इक राग लिए
सुब्ह-ए-क़यामत के हंगामे हुस्न-ए-मौजूदात के नाम

मौज-ए-सुकूँ के साथ मिले ज़ंजीर-ए-अलम बे-ताबी-ए-दिल
हम ने कितनी दौलत पाई उल्फ़त की सौग़ात के नाम

उन की तमन्ना मेरी कोशिश बाहम वा'दे और क़स्में
कुछ मेरी तक़दीर के सदक़े बाक़ी सब हालात के नाम

सजी हुई है अदब की महफ़िल हाल के ऐसे नग़्मों से
बे-मक़्सद बे-कैफ़ किताबें हुस्न-ए-तख़लीक़ात के नाम

हसरत-ओ-अरमाँ बज़्म-ए-तसव्वुर दामन-ए-सहरा दस्त-ए-जुनूँ
ख़ुशियों के पैग़ाम हैं 'ख़ालिद' ग़म के हसीं लम्हात के नाम
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Amanullah Khalid
साईं अपने नफ़स को हम ने यूँ ही नहीं नाकाम किया
उम्र गुज़ारी दर-ब-दरी में कब किस जा आराम किया

ग़ैर तो आख़िर ग़ैर हैं यारो क्या सोचें अब किस के तईं
हम ने कौन जगह अपने को पाबंद-ए-अहकाम किया

अहल-ए-ख़िरद ने जश्न-ए-बहाराँ यूँ भी मनाया अब के बरस
जैब-ओ-गरेबाँ चाक किए और दीवानों में नाम किया

हर दर पे इक बाँग लगावें भला करो बस भला करो
एक ही शिकवा एक ही नाला सुब्ह किया और शाम किया

ऊँचे ऊँचे महलों से क्या ग़रज़ है हम बंजारों को
ठंडी छाया देख के ख़ुद को कभी न ज़ेर-ए-बाम किया

मैं ही था इक आँख न भाओं वो तो अब भी यार हैं तेरे
जिन लोगों ने तेरा चर्चा बाज़ारों में आम किया

दुख ना पहुँचा किसी को बाबा तेरे 'ख़ालिद' से
उन ने तो सौ बार ख़ुशी को ग़म के एवज़ नीलाम किया
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Amanullah Khalid
निगाह-ए-शौक़ को जब तेरा नक़्श-ए-पा न मिला
मुझे भी हुस्न-ए-हक़ीक़त का आइना न मिला

जिसे भी देखो वही अजनबी सा लगता है
तुम्हारे शहर में कोई भी आश्ना न मिला

हदूद-ए-दैर-ओ-किलीसा में ख़ानक़ाहों में
बहुत तलाश किया हम को पारसा न मिला

तड़पते रह गए दिन में भी रौशनी के लिए
चराग़ बेचने वालों को मश'अला न मिला

हमारे दर्स पे ग़ैरों ने पा लिया साहिल
हमारे अपने सफ़ीने को नाख़ुदा न मिला

सुकूँ मिलेगा उन्हें किस के आस्ताने पर
वो अहल-ए-दर्द जिन्हें तेरा आसरा न मिला

मता-ए-दिल वो मिरी लूटने चला था मगर
ये और बात कि रहज़न को हौसला न मिला

मिरी वफ़ाओं पे इल्ज़ाम तो बहुत आए
मिरी वफ़ाओं का मुझ को मगर सिला न मिला

वफ़ा के तज़्किरे हम ने बहुत सुने 'ख़ालिद'
मगर जहाँ में कोई हम को बा-वफ़ा न मिला
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