Tahir Saood Kiratpuri

Tahir Saood Kiratpuri

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Tahir Saood Kiratpuri shayari collection includes sher, ghazal and nazm available in Hindi and English. Dive in Tahir Saood Kiratpuri's shayari and don't forget to save your favorite ones.

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  • Ghazal
हमारे शहर में घर इस लिए सुनसान रहते हैं
कि घर घर ख़ौफ़ से सहमे हुए इंसान रहते हैं

अगर तुम इश्क़ की मस्जिद में जाना ठान ही बैठे
तो बर-ख़ुरदार सीखो उस के क्या अरकान रहते हैं

मुझे मालिक मिरे बच्चों के हर ग़म से बचा लेना
लब-ए-दिल पर वही बन कर मिरे मुस्कान रहते हैं

मुझे कोई दिखा कर ख़्वाब में मेरा नगर बोला
यहाँ ला-हौल विर्द-ए-ख़ास रख शैतान रहते हैं

मोहब्बत वो मुक़द्दस चीज़ है सुन ऐ दिल-ए-नादाँ
वो मिल जाए तो राहत के बड़े इम्कान रहते हैं

वही दिल मो'तबर मुफ़्ती है अहल-ए-दीं की दुनिया में
कि जिस में ऐ ज़माने मुत्तक़ी अरमान रहते हैं

मिरी बस्ती पे हरगिज़ क़हर बरपा हो नहीं सकता
मिरी बस्ती में घर घर साहिब-ए-ईमान रहते हैं

मियाँ शोहरत भी अक्सर आदमी पे ज़ुल्म ढाती है
वही अच्छे हैं दुनिया में जो कम पहचान रहते हैं

यहाँ हर बात आँखों के इशारे से करो 'ताहिर'
लगे दीवार से हर वक़्त कितने कान रहते हैं
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Tahir Saood Kiratpuri
उस की रहमत कर रही है उस के रोज़े का तवाफ़
ये जो बच्चा कर रहा है सूखे टुकड़े का तवाफ़

जाने किस मिसरे की अब तक़दीर लिक्खी जाएगी
कितने मिसरे कर रहे हैं एक मिसरे का तवाफ़

वक़्त-ए-आख़िर बूढ़ी माँ तस्वीर ले कर हाथ में
देर तक करती रही बेटे के चेहरे का तवाफ़

कोई भी यूँही नहीं फिरता किसी के इर्द-गिर्द
सब किया करते हैं ओहदे और रुत्बे का तवाफ़

तितलियाँ कुछ इस तरह मंडला रही हैं फूल पर
जैसे हाजी कर रहे हों हज में का'बे का तवाफ़

किस क़दर मुश्किल है घर ता'मीर करना देख ले
एक चिड़िया कर रही है कब से तिनके का तवाफ़

मुद्दतों तड़पा हूँ तेरे घर के फेरों के लिए
ऐ ख़ुदा मक़्बूल कीजो आज बूढे का तवाफ़
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Tahir Saood Kiratpuri
तल्ख़ लहजा जिस की फ़ितरत है उसी नारी का बोझ
मैं उठाए फिर रहा हूँ ज़ीस्त बेचारी का बोझ

कटघरे में अद्ल की ख़ातिर खड़ा है बे-क़ुसूर
ढो रहा है एक बेबस कब से लाचारी का बोझ

इस लिए पल भर को मैं सोता नहीं आराम से
ले के सोता हूँ हमेशा सर पे बेदारी का बोझ

ज़िंदगी कैसे गुज़ारूँ मैं तो इक मज़दूर हूँ
इक तरफ़ बेटी की शादी उस पे बीमारी का बोझ

उस को आँखों ने नहीं देखा तो यूँ लगता रहा
जैसे आँखों के सरों पर हो जफ़ा-कारी का बोझ

और मत रक्खो मिरे काँधों पे ज़िम्मेदारियाँ
पहले ही कुछ कम नहीं है रोटी तरकारी का बोझ

तजरबे के साथ कीजिए मिस्रा-ए-सानी क़ुबूल
सब से भारी है तो है दुनिया में ख़ुद्दारी का बोझ

बार-ए-फ़न ढोने की ताक़त दे वगर्ना ऐ करीम
ना-तवाँ कैसे उठा सकता है फ़नकारी का बोझ

बादशाह-ए-वक़्त हैं बे-फ़िक्र और ताहिर-'सऊद'
नौजवाँ दिल पर लिए फिरते हैं बेकारी का बोझ
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Tahir Saood Kiratpuri
झूट की पोशाक पर पैवंद-कारी कब तलक
हम से आख़िर ये बताओ होशियारी कब तलक

साहब-ए-कश्कोल कुछ इज़्ज़त की रोज़ी कर तलाश
यूँ इकट्ठा तू करेगा रेज़गारी कब तलक

राज़ मैं ने तुम को अपना दे दिया कुछ सोच कर
देखना है रख सकोगे राज़दारी कब तलक

इज्ज़ की ताकीद करते हो बहुत तक़रीर में
ये बताओ ज़ालिमों से इंकिसारी कब तलक

जाल-साज़ी की कटोरी और दाने लोभ के
कह रहे हैं कुछ परिंदे ऐ शिकारी कब तलक

ऐ हवस ख़ोरों मिरी मासूम आँखों के लिए
ख़्वाब लाओगे सुनहरे बारी बारी कब तलक

अब तो वाजिब जान ले ता'लीम को ऐ मेरी क़ौम
सोच यूँ बहकाएँगे जाली पुजारी कब तलक

हम को ये ग़म ही न ले डूबे कहीं ख़ल्लाक़-ए-ख़ल्क़
बे-ज़मीरों पर रहेगी ताज-दारी कब तलक

वो भी इक इंसान है बतलाओ ऐ ताहिर 'सऊद'
ख़्वाह-मख़ाह सुनता रहे आख़िर तुम्हारी कब तलक
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Tahir Saood Kiratpuri
किसी काग़ज़ के सीने पर ये जज़्बा दर्ज कर देना
मिरे भाई के हक़ में मेरा हिस्सा दर्ज कर देना

कई पहलू सबक़-आमेज़ इस क़िस्से में मुबहम हैं
हमारे साथ गुज़रा है ये क़िस्सा दर्ज कर देना

अगर हँसने हँसाने पर कोई कॉलम लिखा जाए
तो मेरे हुक्मरानों का रवय्या दर्ज कर देना

गए वक़्तों में रोना क़र्ज़ था सो रो चुका हूँ मैं
पुराना काट देना और उगला दर्ज कर देना

तसव्वुर में क़लम कुछ इस तरह गोया हुआ मुझ पर
कहीं दरिया के दिल पर मुझ को प्यासा दर्ज कर देना

किरामन कातिबीं तुम को क़सम ख़िल्क़त के ख़ालिक़ की
मिरी गुस्ताख़ियों पर लफ़्ज़ तौबा दर्ज कर देना

अगर काग़ज़ के चेहरे को सजाना हो कभी 'ताहिर'
लब-ए-काग़ज़ पे कोई एक मिसरा दर्ज कर देना
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Tahir Saood Kiratpuri
जो अँधेरी छत पे ख़याल हैं उन्हें रौशनी में उतार ले
ये जो हुस्न है तिरी सोच में उसे शाइरी में उतार ले

ऐ सुख़न-शनास-ए-जदीद सुन कोई हर्फ़ तुझ से न छूट जाए
जो न मर्सिया को क़ुबूल हो उसे रुख़्सती में उतार ले

तुझे ज़िंदगी किसी मोड़ पर कोई काम आए तो फ़ोन कर
मिरे नम्बरात सँभाल कर किसी डाइरी में उतार ले

तिरे नाम को तिरे दुश्मनाँ लब-ए-आसमान पे पाएँगे
ये जो गुफ़्तुगू में जुनून है उसे ख़ामुशी में उतार ले

ज़रा फ़ारसी के इमाम सुन मैं ज़बान-ए-हिन्द में हूँ तो क्या
मैं तिरे मिज़ाज का लफ़्ज़ हूँ मुझे फ़ारसी में उतार ले

ये जो ऊँचे ऊँचे मकान हैं उन्हें देख कर न मलूल हो
तिरा सब्र-ओ-ज़ब्त नसीब है दिल-ए-मुफ़्लिसी में उतार ले

ये यक़ीन शर्त-ए-यक़ीन है वो अमीन है वो अमीन है
ऐ 'सऊद' उस को यक़ीन से रग-ए-ज़िंदगी में उतार ले
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