इस शहर के सुर्ख़ नज़ारों में, एक ज़र्द- सा क़स्बा याद आया
दिन-रात के मस्त उजालों में, एक शाम का चेहरा याद आया
इस ज़द्दोजहद, हंगामे में, सब प्यार-मुहब्बत भूले थे
घर छोड़ते वक़्त का, वो तेरा छूटा हुआ जुमला याद आया
तक़दीर है क्या, तदबीर है क्या, यह एक क़शमकश साथ चली
दरिया की उफनती लहरों में, एक ऊंघता सहरा याद आया
तक़दीर है क्या, तदबीर है क्या, यह एक क़शमकश साथ चली
दरिया की उफनती लहरों में, एक ऊंघता सहरा याद आया
सदियों की कला, सदियों का हुनर, सदियों के निशां, सदियों का सफ़र
फिर भी इस दौर की हलचल में, बग़दाद का नक़्शा याद आया
गंगा का नमन, जमुना की छुअन, ग़ालिब की ग़ज़ल, मीरा के भजन
एक सब्ज़-सी बस्ती में अक्सर एक टूटता पत्ता याद आया
वो शान, वो शोहरत, वो रौनक़, वो भीड़, वो यारों की महफ़िल
कल रात जो देखा आईना, एक पेड़ वो तनहा याद आया
ईमान, वफ़ा, क़स्में, वादे, अहसास, वो नर्म फ़रेबों के
जज़्बात के उजड़े गुलशन में, एक प्यासा परिंदा याद आया
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