वक़्त कम था सो घड़ी उससे छुपाए रक्खी
और कोई न कोई बात चलाए रक्खी
उसने दीपक को हवाओं के हवाले करके
चार-सूँ हाथों से दीवार बनाए रक्खी
याद हो भी कि न हो उसको कि उसने कही थी
हमने जो बात सदा दिल से लगाए रक्खी
उसने दिल तोड़ दिया और समेटे रक्खा
हम बिखरते गए पर धार बचाए रक्खी
साथ था तो किसी ने कुछ न कहा उसके खिलाफ़
और जब बिछड़ा तो हर शख़्स ने राए रक्खी
रौशनी करते गए वादा-ओ-पैमाँ तेरे
उम्र भर दिल में मगर आग लगाए रक्खी
इस भरम में कि किसी रोज़ पलट आएगा वो
इक ग़ज़ल उसके लिए हम ने सजाए रक्खी
पाक इरादों को मेरे देख ज़रा 'नाज़' कि तू
ख़्वाब में आया भी तो सामने चाए रक्खी
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