मौज-ए-शादाँ में ग़मों की तिश्नगी कैसे रहे
यानी ख़ुश-कामी की ज़द में शायरी कैसे रहे
तुम तो मुझमें रह कहीं लोगे इन आँखों के सिवा
पर कहीं भी मेरी आँखों की नमी कैसे रहे
देख मैं भी हूँ सुख़नवर और तू भी इसलिए
अपने जैसों की किसी से दोस्ती कैसे रहे
हम भले इक दूजे से रह लें जुदा होकर मगर
ज़िंदगी से ग़म ग़मों से ज़िंदगी कैसे रहे
साँस लेना शेर कहना सब तो मुमकिन है मगर
टूटने के बाद दिल ज़िंदा कोई कैसे रहे
आशिक़ी से दूर आशिक़ रह लें डर से बाप के
दूर लेकिन आशिक़ों से आशिक़ी कैसे रहे
जब तलक हैं क़ैद तेरे शौक़-ए-दीद-ए-हुस्न में
तेरे दीवानों को मरज़-ए-मयकशी कैसे रहे
आग पानी की तरह है राब्ता इनमें ‘सफ़र’
एक ही सीने में उलफ़त और ख़ुशी कैसे रहे
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