बदन मरहूम हो जाने पे भी आवाज़ आती है ,
कफ़न से रूह की इक सरसरी आवाज़ आती है
जिसे सुनकर परिंदों के गले भी सूख जाते हैं,
शजर के पास ऐसे ज़ब्त की आवाज़ आती है
हर इक मंज़र किसी आवाज़ का ही तर्जुमा तो है,
पढ़ो तो कागज़ों से कागज़ी आवाज़ आती है
सदा का रब्त गहरी..ठेठ.. गहरी ख़ामशी से है,
ख़ला को सुन के देखा.. वाक़ई.. आवाज़ आती है..
हवेली को तो सब ने मिलके वीराना बना डाला,
मगर वो दर जहाँ से आज भी आवाज़ आती है ?
वो इक बुत बोलता तो है मग़र अपनी सहूलत से,
कभी पत्थर का होता है कभी आवाज़ आती है
फ़िज़ा से इल्तिजा है अब नई तरतीब से गूँजे,
कई बरसों से वो ही आ चुकी आवाज़ आती है..
इबादत में ख़ुदा हो ख़ुश तो 'दर्पन'.. फूल गिरते हैं,
ग़ज़ल में मीर तक़ी मीर की आवाज़ आती है
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