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हर एक आन वो हम से जुदा सा कुछ तो है  - Ahmed Sohail

हर एक आन वो हम से जुदा सा कुछ तो है
हमारी ज़ात के अंदर ख़ुदा सा कुछ तो है

वो क्या है कुछ भी नहीं इक ज़रा सा कुछ तो है
कभी दुआ तो कभी बद-दुआ' सा कुछ तो है

लहू है बर्फ़ है रक़्स-ए-शरर है क्या है ये
ये जिस्म-ओ-जाँ में पिघलता हुआ सा कुछ तो है

समझ सका न कोई अब तलक कि वो क्या है
वो आईना न सही आईना सा कुछ तो है

तमाम रंग वो मौसम उड़ा गया लेकिन
कहीं तो शाख़ पे अब तक हरा सा कुछ तो है

- Ahmed Sohail

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