शिखर पे चढ़के बैठे थे एहतियात के
मौसम सभी गुजर गए बरसात के
हम रोशनी के तलबगार लोग हैं
हम मुसाफिर हैं स्याह रात के
नहीं काँटो को भी ये मंजूर
फूल कोई तोड़ा जाए बिना बात के
देखिए महरूम होते चले गए हैं
मेरे दोस्त सभी मेरी ज़ात के
नहीं है ग़म-ए-हयात से ये जख़्म
ये जख़्म है खुद अपने जज़्बात के
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