आईना हमें ख़ुद का जब चेहरा दिखाता है
हर बार हमें ख़ुद की नज़रों में गिराता है
मुँह फेर के निकले थे क्या सोच के जाएँ अब
किस मुँह से कहे आख़िर, घर याद वो आता है
हम छोड़ वतन अपना परदेस में बैठे हैं
हर रोज़ वतन हमको आवाज़ लगाता है
ख़ामोश ज़ुबाँ मेरी तब शोर मचाती है
जब दोस्त नज़र कोई इस शहर में आता है
दिल भूल जा वो बातें, बातें जो पुरानी हैं
क्यों अश्क-ए-नदामत से आँखों को भिगाता है
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