कातिब-ए-तक़दीर ने भी चश्म-ए-तर हो कर लिखा है
ज़ख़्म का नासूर होना आशिक़ी की इंतिहा है
इन हवाओं की ख़मोशी को सुना है यार हमने
जान पाए हम तभी क़ुदरत हमारी हम-नवा है
लोग तन्हा छोड़ देंगे बात मेरी मान लो तुम
सबके अपने ग़म बहुत हैं सब ख़ुदी में मुब्तिला है
रोज़ सच्ची ही मोहब्बत से ख़ुदा मिलवा रहा है
बात ऐसी कुछ नहीं है बस ज़रा दिल मन-चला है
ढो रहा हूँ ख़ूबसूरत पैरहन में पैकर-ए-इश्क़
यूँ नहीं था हाल ये तो हासिल-ए-'उम्र-ए-वफ़ा है
काश मेरी मौत तेरी गोद में हो जान-ए-जानाँ
बस ख़ुदा से अब मिरी ये आख़िरी जाइज़ दुआ है
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