Alakh Niranjan

Alakh Niranjan

@alakh-niranjan

Alakh Niranjan shayari collection includes sher, ghazal and nazm available in Hindi and English. Dive in Alakh Niranjan's shayari and don't forget to save your favorite ones.

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  • Ghazal
ये मुमकिन है कि यूँ हम ने तुम्हें अक्सर रुलाया हो
मगर ये भी तो है तुम ने हमें अक्सर सताया हो

बिगड़ती बात है जब जब मुझे यूँ कोसती हो तुम
कि जैसे ज़िंदगी का हर सितम मुझ से ही पाया हो

हर इक गोली तमंचे से निकल कर सोचती होगी
अगर लेनी ही हैं जानें तो क्यों अपना पराया हो

हमारे क़ब्र पर अक्सर सुलगती धूप रहती है
जो ज़िंदा थे तो चाहा था तिरी ज़ुल्फ़ों का साया हो

तिरी आँखों की वुसअ'त में भरी हो कहकशाँ शायद
तिरी नाज़ुक सी पलकों ने फ़लक शायद उठाया हो

हमारी ख़ाक उड़ कर शाख़ से करती है सरगोशी
उठा लो फूल ये शायद हवा ने ही गिराया हो

मुलाक़ातें तो होती हैं मगर पूरी नहीं होती
कि जैसे नींद में गहरी अधूरा ख़्वाब आया हो

हुई है आज बे-पर्दा तिरी ये बे-रुख़ी कुछ यूँ
मिरे हालात ने रुख़ से तिरे पर्दा हटाया हो

लिपट कर आग से देखो 'अलख़' की लाश जलती है
किसी हमदर्द ने आ कर जो सीने से लगाया हो
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Alakh Niranjan
डर क्यों जाते हैं ये डरने वाले लोग
मरने से पहले ही मरने वाले लोग

उम्र के कितने प्यारे साल बचाते हैं
प्यार मोहब्बत इश्क़ न करने वाले लोग

लोग वो कितनी चैन की नींदें सोते हैं
वा'दा कर के जल्द मुकरने वाले लोग

इक दिन सारी धरती को खा जाएँगे
घास के पीछे मिट्टी चरने वाले लोग

जीते जी क्यों इतना शोर मचाते थे
क़ब्रों में सन्नाटा भरने वाले लोग

देखें नसीहत क्या वो हम को पढ़ाते हैं
वैसे नहीं हैं हम तो सुधरने वाले लोग

तैरने की उम्मीदों में तुम मत डूबो
डूब गए हैं सारे तैरने वाले लोग

लब से लगा कर मय की प्यास बुझाते हैं
पेड़ के सर पर छाता धरने वाले लोग

राज़ बुलंदी के दुनिया से छुपाते हैं
सीढ़ी से चुप-चाप उतरने वाले लोग

आज 'अलख़' को क्यों इम्कान में ढूँडते हो
ख़ाक से क्या उभरेंगे उभरने वाले लोग
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Alakh Niranjan
शोख़ पत्ते लहलहाते हैं शजर के
जैसे कोई इश्तिहार अपने हुनर के

कितने कच्चे रास्ते हैं इस शहर में
शे'र जैसे बन पड़े हों बे-बहर के

सौ मकानें फिर कहीं तोड़ी गईं तो
एक पुतला फिर कहीं आया उभर के

जब करेंगे गुफ़्तुगू तन्हाइयों से
तब बनेंगे हम-सफ़र ख़ुद हम-सफ़र के

पास बैठो भी कभी काजल लगाए
हौसले भी देख लो मेरी नज़र के

मुफ़्लिसी से दूर थोड़ी है अमीरी
फ़ासले हैं चंद क़िस्मत-ओ-सफ़र के

गिर पड़ीं तब डर गईं बूँदें ज़मीं से
हाथ पकड़े ही रही बहती नहर के

बाँट ले दुनिया जो टुकड़े हो गए हैं
ज़ीस्त-ओ-हस्ती के दिल-ओ-जान-ओ-जिगर के

यूँ क़लम को काग़ज़ों में गाड़ देना
क्या यही आसार हैं तेरे ग़दर के

अपने अंधे-पन के बारे में तो सोचो
ख़्वाब 'अलख़' क्यों देखते हो तुम सहर के
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