"हिज्र में मारी गईं नज़्में"
सर्द रात में आँखो पर पड़ी ओस से उतारी गई नज़्में
सिसकती हैं,चीखती हैं ,हिज्र में मारी गयी नज़्में
तुम तक अब आवाज नही जाती मेरी
तुम तक अब मेरे खत भी नही जाते हैं
ये साये,ये अलमारियाँ,ये किताबें,ये कमरा
लौट आओ ना,सब तुम्हे बुलाते हैं
तेरे गालों पर मेरे हाथ हुआ करते थे
सुबह-ओ-शाम हम साथ हुआ करते थे
अब तन्हाई सिरहाने बैठ जाती है
तुम्हारी याद यकायक आ ही जाती है
एक किस्सा है जिसका छोर नही पाता हूँ
रोना छोड़ दिया है,बेसबब मुस्कराता हूँ
एक चेहरा है जिसे भूल नही पाऊँगा
एक चेहरे पर मैं कितनी नज़्म गाऊँगा!
एक उम्मीद है तेरे लौट आने की मगर
ये माजी तो मेरी जान लिए जाता है
तेरा नाम लिखना और मिटाना रेत से
इसका सिवा मुझे कुछ और कहां आता है
धूप भी नही आती है दरीचों से
रेत भी अब खत्म है सेहराओं से
मन बोझिल सा,परेशान सा है
तेरी याद रिसती है मेरे घावों से
कोई है जो मेरा हाथ पकड़ने को है
बेवजह की बात पर मुझसे लड़ने को है
तू बता तेरी जगह कैसे दे दूँ
अपना हिस्सा खुद ही कैसे खो दूँ
तू बता तू लौट कर आएगा ना?
तू बता मेरी नज़्म तू गायेगा ना?
कुछ गैर जरूरी बातें तुझसे करनी है
तेरी मोहब्बत से अपनी कब्र भरनी है
ये मौसम मुझे कितना अजीज था
इक वक़्त तू मेरे कितना करीब था
मुहब्बत से लड़ाई! हार जाएगा
मुझे मालूम है! तू न आएगा!
सर्द रात में आँखो पर पड़ी ओस से उतारी गई नज़्में
सिसकती हैं,चीखती हैं ,हिज्र में मारी गयी नज़्में
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