Jagdeesh Raj Figar

Jagdeesh Raj Figar

@jagdeesh-raj-figar

Jagdeesh Raj Figar shayari collection includes sher, ghazal and nazm available in Hindi and English. Dive in Jagdeesh Raj Figar's shayari and don't forget to save your favorite ones.

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  • Ghazal
ज़र्फ़-ए-कोहना गला दिया जाए
रूप उस को नया दिया जाए

अपनी अग्नी में वो जले न मज़ीद
शम्स को ये बता दिया जाए

पूछना क्या है बूढे अम्बर से
उस के यद में असा दिया जाए

अपनी अपनी हुदूद ही में रहें
बहर-ओ-बर को बता दिया जाए

इन से फूलों को ईर्खा होगी
तितलियों को उड़ा दिया जाए

सूना सूना है जो भी सहन वहाँ
पेड़ तन का लगा दिया जाए

महवशों की जो फ़स्ल लेनी है
अर्ज़ पर मह उगा दिया जाए

अर्ज़ के वास्ते ये अच्छा है
बीच में नभ हटा दिया जाए

सुब्ह हो जब तो माहताब को क्या
लोरी दे कर सुला दिया जाए

इन को लम्हों में बाँटना है अभी
साअ'तों को बढ़ा दिया जाए

ज़िंदगी है अगर सराब 'फ़िगार'
जग को सहरा बना दिया जाए
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Jagdeesh Raj Figar
जो फ़क़त रहते हों दिन को बे-क़रार
महवशों में कीजिए उन का शुमार

जिस पे सहवन हो गया मेरा नुज़ूल
ज़ात उस की हो गई बस आब-दार

वो मिरी साँसों के रस्ते हो लिया
जो उठा दिल से कभी गर्द-ओ-ग़ुबार

ख़ालिक़-ए-कौनैन से क्या वास्ता
जब मिरा किरदार ठहरा किर्दगार

दिन को हूँ मैं गर्म शब को सर्द हूँ
मेरी हस्ती क्या नहीं है रेग-ज़ार

कश्मकश जारी है जो अफ़्लाक में
देखिए हासिल हो किस को इक़्तिदार

और भी तो हैं यहाँ कितने मुक़ीम
पाँव धरती पर न तू इतने पसार

मौत से कह दो न इस में दख़्ल दे
ज़ीस्त से है रब्त मेरा उस्तुवार

मौत का पहले ही परतव देख लूँ
दिल के दर्पन पर है उस का इंहिसार

एक सूखा खेत है वो जिस जगह
मैं वहाँ हूँ आब-जू का रहगुज़ार

ये जो आलम है कभी इक देस था
इस से कट कर बन गए कितने दयार

ख़ाक हूँ या मोम हूँ क्या इम्तियाज़
शम-ए-महफ़िल हूँ कि हूँ शम-ए-मज़ार

हब्स के ज़िंदान में रक्खा है क्यों
मैं तो ज़िंदानी नहीं हूँ ऐ 'फ़िगार'
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Jagdeesh Raj Figar
ये नादाँ ज़ेहन है जो सोचता है
ख़ला में क्या कहें सौत-ओ-सदा है

क़लम ने जो भी काग़ज़ पर लिखा है
मिरे अफ़्कार का वो आइना है

इक ऐसा भी है पानी का परिंदा
तह-ए-क़ुल्ज़ुम पे जिस का घोंसला है

फ़रिश्तों की पढ़ो तो हस्त रेखा
दवाम उन के मुक़द्दर में लिखा है

उतारेंगे कभी तौक़-ए-ग़ुलामी
हवाओं का फ़ज़ाओं ने कहा है

ज़मीं को अब नहीं पहली सी हरकत
क़मर भी दूर होता जा रहा है

वही नाज़िल हुई है आसमाँ से
कि हर बच्चा जहाँ का देवता है

तमाम असरार खोलेगा वो अपने
गगन धरती की जानिब चल पड़ा है

रवाबित इस के बे-मा'नी हैं सारे
ज़मान-ए-हाल से जो कट गया है

मुक़य्यद ही रहा हूँ घर में अपने
युगों से सिलसिला ये चल रहा है

जहाँ को तंग-बीनी का ये तोहफ़ा
फ़लक की वुसअ'तों से क्या मिला है

'फ़िगार' इक पैकर-ए-हिल्म-ओ-तहम्मुल
बना कर सब के घर में रख दिया है
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Jagdeesh Raj Figar
मैं ने जब तब जिधर जिधर देखा
अपनी सूरत का ही बशर देखा

रेत में दफ़्न थे मकान जहाँ
उन पे मिट्टी का भी असर देखा

जब सुकूनत थी मेरी बर्ज़ख़ में
नेक रूहों का इक नगर देखा

जो बरहना मुदाम रहता था
मैं ने मल्बूस वो शजर देखा

अपने मस्लक पे गामज़न था जब
रौशनी को भी हम-सफ़र देखा

मुझ पे था हर वजूद का साया
धूप को जब बरहना-सर देखा

मुझ को एहसास बरतरी का हुआ
रिफ़अ'तों को जब इक नज़र देखा

जिस की तौहीन की सितारों ने
मैं ने ऐसा भी इक क़मर देखा

उस के रुख़ पर मिरा ही परतव था
मैं ने जिस को भी इक नज़र देखा

उस की रूदाद बूम से पूछो
जो भी कुछ उस ने रात-भर देखा

मेरी चिड़ियों से थी रिफ़ाक़त क्या
साफ़ सुथरा जो अपना घर देखा

देखना था कि देव सा भी हूँ
चढ़ के कंधों पे अपना सर देखा

आत्मा से जो राब्ता था मिरा
ज़ात अपनी में ईश्वर देखा

बहर-ओ-बर से वो मुख़्तलिफ़ था 'फ़िगार'
मैं ने मंज़र जो औज पर देखा
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Jagdeesh Raj Figar
तपिश से भाग कर प्यासा गया है
समुंदर की तरफ़ सहरा गया है

कुआँ मौजूद है जल भी मयस्सर
वो मेरे घर से क्यूँ तिश्ना गया है

दोबारा रूह उस में फूँक दो तुम
बदन जो फिर अकेला आ गया है

ज़माँ अपनी रविश पर तो है क़ाएम
मगर लम्हात में फ़र्क़ आ गया है

सफ़र में ताज़ा-दम होगा वो कैसे
जो घर ही से थका-माँदा गया है

बना होगा ख़स-ओ-ख़ाशाक से वो
जो नभ जलता हुआ देखा गया है

मुझे लहरों की कश्ती पर बिठा कर
भँवर की खोज में दरिया गया है

ज़मीं से भी तवक़्क़ो कुछ है ऐसी
दिमाग़-ए-चर्ख़ जब चकरा गया है

जो उतरा अर्श का इक एक तबक़ा
ज़मीं पर दायरा बनता गया है

न फ़िक्र-ए-वर्ता थी उस को ज़रा भी
वो कश्ती ज़ीस्त की खेता गया है

'फ़िगार' उस में वजूद उस का मिलेगा
जो जूयाँ बहर का क़तरा गया है
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Jagdeesh Raj Figar
ख़ानदानी क़ौल का तो पास रख
राम है तो सामने बन-बास रख

आस के गौहर भी कुछ मिल जाएँगे
यास के कुछ पत्थरों को पास रख

तू इमारत के महल का ख़्वाब छोड़
ख़्वाब में बस झोंपड़ी का बास रख

महज़ तेरी ज़ात तक महदूद क्यूँ
मौसमों के कैफ़ का भी पास रख

दहर में माज़ी भी था तेरा न भूल
आने वाले कल में भी विश्वास रख

तुझ को अपने ग़म का तो एहसास हो
अपने पहलू में दिल-ए-हस्सास रख

दौलत-ए-इफ़्लास तुझ को मिल गई
दौलत-ए-कौनैन की अब आस रख

मुब्तदी को लौह से है वास्ता
तू तो है अहल-ए-क़लम क़िर्तास रख

बोस्ताँ सब को लगे तेरा वजूद
अपने तन में इस लिए बू-बास रख

ये ज़माँ है तेज़-रौ घोड़ा नहीं
हाथ में अपने न उस की रास रख

साहिब-ए-मक़्दूर है माना 'फ़िगार'
ये तुझे किस ने कहा था दास रख
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Jagdeesh Raj Figar
आदमी था क्या वही इक काम का
अर्ज़ पर जिस का कोई मस्कन न था

जो किसी ने पैरहन मुझ को दिया
वो मिरे ही तन का हिस्सा बन गया

हम थे जुड़वाँ इस लिए तन एक था
एक सर्जन ने अलग हम को किया

जल में जब तक मैं रहा ज़िंदा रहा
तट पे सागर के मैं आ कर मर गया

जब कभी मैं सोचने कुछ लग पड़ा
दूर तक फिर सिलसिला चलता रहा

मैं ज़मीं पर इक तरह का बोझ था
वो तो माँ थी उस को ये सहना पड़ा

वज्द में आता कभी तो पेड़ की
टहनियों पर चढ़ के अक्सर झूलता

था मैं सालिक इक अनोखा दहर में
जो भी मस्लक मिल गया मैं चल पड़ा

आलम-ए-जबरूत का साकिन था मैं
आलम-ए-सिफ़्ली में कैसे आ गया

हादसे को रोकना था इस लिए
रास्ते पर हो गया जा कर खड़ा

बंद करते थे कभी थे खोलते
रूप दरवाज़े का मुझ को क्या मिला

लेट जाता पीठ के बल फ़र्श पर
देख लेता जब भी आते में क़ज़ा

जो समावी थे क़मर पर जा बसे
मैं था ख़ाकी दहर में ही रह गया

मुझ को देना था 'फ़िगार' उन का जवाब
चिट्ठियों का सामने अम्बार था
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Jagdeesh Raj Figar