Obaidur Rahman

Obaidur Rahman

@obaidur-rahman

Obaidur Rahman shayari collection includes sher, ghazal and nazm available in Hindi and English. Dive in Obaidur Rahman's shayari and don't forget to save your favorite ones.

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  • Ghazal
यूँ लग रहा है जैसे गुमाँ टूटने को है
या'नी हक़ीक़तों का जहाँ टूटने को है

ख़्वाब-ओ-ख़याल-ओ-फ़िक्र की रानाइयाँ लिए
काग़ज़ पे मेरा हर्फ़-ए-बयाँ टूटने को है

जब इस के बाद दाइमी इक घर है मुंतज़िर
क्या ग़म जो आरज़ी सा मकाँ टूटने को है

जो फ़ैसला हुआ है अदालत में हक़ तरफ़
हैरान अक़्ल है ये ज़बाँ टूटने को है

पढ़ कर जदीद शाइ'री ये फ़ाएदा हुआ
उस्लूब अपना अपना बयाँ टूटने को है

देखो किनारे अपने सँभाले रहो मियाँ
जारी जो है ये सैल-ए-रवाँ टूटने को है

अब कौन होगा अपने निशाने की ज़द पे याँ
अब तीर क्या करेंगे कमाँ टूटने को है

अब उस को ऐसे छोड़ना अच्छा नहीं मियाँ
कुछ हो ख़याल पीर-ए-मुग़ाँ टूटने को है

बर्दाश्त की भी कोई तो हद होती है 'उबैद'
अब इस से आगे बंद۔ए-फ़ुग़ां टूटने को है
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Obaidur Rahman
है आज अंधेरा हर जानिब और नूर की बातें करते हैं
नज़दीक की बातों से ख़ाइफ़ हम दूर की बातें करते हैं

तामीर-ओ-तरक़्क़ी वाले हैं कहिए भी तो उन को क्या कहिए
जो शीश-महल में बैठे हुए मज़दूर की बातें करते हैं

ये लोग वही हैं जो कल तक तंज़ीम-ए-चमन के दुश्मन थे
अब आज हमारे मुँह पर ये दस्तूर की बातें करते हैं

इक भाई को दूजे भाई से लड़ने का जो देते हैं पैग़ाम
वो लोग न जाने फिर कैसे जम्हूर की बातें करते हैं

इक ख़्वाब की वादी है जिस में रहते हैं हमेशा खोए हुए
धरती पे नहीं हैं जिन के क़दम वो तूर की बातें करते हैं

हम को ये गिला महबूब उन्हें अफ़्साना-ए-बज़्म-ए-ऐश-ओ-तरब
शिकवा ये उन्हें हम उन से दिल-ए-रंजूर की बातें करते हैं

क्या ख़ूब अदा है उन की 'उबैद' अंदाज़-ए-करम है कितना हसीं
मजबूर के हक़ से ना-वाक़िफ़ मजबूर की बातें करते हैं
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Obaidur Rahman
नक़ाब चेहरे से मेरे हटा रही है ग़ज़ल
हिसार-ए-ज़ात से बाहर बुला रही है ग़ज़ल

ये कौन है जो बहुत बे-क़रार है मुझ में
ये किस के क़ुर्ब में यूँ कसमसा रही है ग़ज़ल

वो ख़ोल जिस में मुक़य्यद हूँ टूटने को है
मुझे बहार का मुज़्दा सुना रही है ग़ज़ल

वजूद का हुआ जाता है फ़ल्सफ़ा पानी
रुमूज़-ए-ज़ात से पर्दे उठा रही है ग़ज़ल

जो मो'तरिज़ थे हुए वो भी मो'तरिफ़ उस के
हर एक दौर में जादू-नुमा रही है ग़ज़ल

सहा है ख़ुद पे हर इक तीर तंज़ का हँस कर
पिया है ज़हर मगर मुस्कुरा रही है ग़ज़ल

है क़द्र-दान को अपने ये वज्ह-ए-सरशारी
ये हासिदों के दिलों को जला रही है ग़ज़ल

कि सिर्फ़ गुल ही नहीं ख़ार से भी निस्बत है
ये और बात कि बाद-ए-सबा रही है ग़ज़ल

करे है उस पे रियाज़त कि उस का हुस्न खुले
'उबैद' के लिए मिस्ल-ए-हिना रही है ग़ज़ल

था एक शग़्ल मिरा मेरी ये ग़ज़ल-गोई
'उबैद' ज़ात को अब अपनी भा रही है ग़ज़ल
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Obaidur Rahman
तसव्वुर में मिरे ऐसे कोई चेहरा निकलता है
कि सूखी शाख़ पर जैसे हरा पत्ता निकलता है

फ़रिश्ते घर की चौखट पर खड़े रहते हैं सफ़ बाँधे
कि जब स्कूल को घर से कोई बच्चा निकलता है

ज़मीं भी जैसे मेरा इम्तिहाँ लेने के दर पय है
जिधर पाँव बढ़ाता हूँ उधर सहरा निकलता है

हक़ीक़त उन की जो भी हो अक़ीदा है यही अपना
इन्हीं ख़्वाबों से मंज़िल के लिए रस्ता निकलता है

सफ़र सूरज का मुझ को जब कभी दरपेश आ जाए
तो मेरा हम-सफ़र बन कर मिरा साया निकलता है

करेगी मन्फ़अत हासिल इसी से फ़स्ल-ए-मुस्तक़बिल
हमारी ज़ात से जो ये सुख़न दरिया निकलता है

मुझे मेरी नज़र में मो'तबर करता है वो पैहम
मिरा दुश्मन मिरे हक़ में सदा सच्चा निकलता है

हमारी प्यास सच्ची है हम इस्माईल वाले हैं
जहाँ एड़ी रगड़ दें हम वहीं दरिया निकलता है

ज़लील-ओ-ख़्वार होते हैं 'उबैद'-ए-बा-ख़बर लोगो
मोहब्बत का मगर सर से कहाँ सौदा निकलता है
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