हमारा नाम लबों पर सजा के रोती है
वो लड़की रोज़ मुसल्ले पे आ के रोती है
अजीब हाल है उसका हमारी फ़ुर्क़त में
सहेलियों को गले से लगा के रोती है
ऐ सखियों आँख में कुछ पड़ गया है आज मेरी
वो उनसे ऐसे बहाने बना के रोती है
जहाँ पे मिलते थे हम दोनों एक दूजे से
वो उस मक़ाम पे हर शाम जा के रोती है
हमारे नाम की हर साल दस दिसम्बर को
हिना हथेली पे अपनी सजा के रोती है
मेरे नसीब में ऐ दोस्त तेरा प्यार न था
ग़ज़ल ये गाती है और ख़ूब गा के रोती है
लहू से करती है तहरीर पहले नाम मेरा
फिर उसके बाद उसे वो मिटा के रोती है
था मैं क़रीब तो जानी न उसने क़द्र मेरी
वो मुझको देखो मगर अब गँवा के रोती है
शजर शजर था शजर की तरह नहीं है कोई
ये बात सखियों को अपनी बता के रोती है
कोई न देख ले रोता हुआ शजर उसको
दिया सो कमरे का अपने बुझा के रोती है
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