मिलूँगा अब की तो तुझमें क़याम कर लूँगा
डुबो के ख़ुद को तुझे अपनी शाम कर लूँगा
बना के बा'इस-ए-ईज़ा में सबसे ख़ास तुझे
वुफ़ूर-ए-गिर्या में ख़ुद को मैं आम कर लूँगा
बढ़ेगी माँग तो कर लूँगा इस्म-ए-जिन्स तुझे
गिरेगा मोल तो मैं ख़ुद को दाम कर लूँगा
न आएगा तो मैं भी पूछने न जाऊँगा
मगर जो आया तो बेशक सलाम कर लूँगा
उसे ये कह दो कि अपनी दुआ न ज़ाया करे
मैं अपनी मौत का ख़ुद इंतिज़ाम कर लूँगा
अगरचे बिखरा है सामाँ तो बिखरा रहने दो
मैं अपने कमरे का ख़ुद ही निज़ाम कर लूँगा
मुशीर-ख़ास तू बन के तो देख मेरे लिए
मैं तेरे वास्ते ख़ुद को अवाम कर लूँगा
तरीक़-ए-कार सही हो या फिर न हो मेरा
मगर यक़ीं है कि इक दिन मैं नाम कर लूँगा
जिगर से अश्क बहाते हुए जो हँसना हुआ
बस इक ‘सफ़र’ ने कहा मैं ये काम कर लूँगा
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