हादसों ने हौसलों को कितना बेबस कर दिया है
पुख़्तगी ने आँसुओं को कितना बेबस कर दिया है
हार कर दिल आशिक़ी में हाथ थामा था क़लम का
पर क़लम ने हसरतों को कितना बेबस कर दिया है
फिर किसी मासूम को फाँसी मुकर्रर हो गई है
रिश्वतों ने फ़ैसलों को कितना बेबस कर दिया है
पंछियों को ख़्वाहिश-ए-दीदार है बस चाँद का पर
बादलों ने ख़्वाहिशों को कितना बेबस कर दिया है
हाल भी अब पूछ हम पाते नहीं इक दूसरे का
सरहदों ने दो दिलों को कितना बेबस कर दिया है
बात भी होती नहीं अब रात भी होती नहीं अब
फ़ुर्क़तों ने इन पलों को कितना बेबस कर दिया है
ज़िन्दगी भाती नहीं अब मौत भी आती नहीं पर
फ़ासलों ने धड़कनों को कितना बेबस कर दिया है
दास्ताँ अपनी सुनाकर बे-वजह 'रेहान' तुमने
ग़म-ज़दा इन मुस्तमों को कितना बेबस कर दिया है
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