तोड़ कर अहद-ए-करम ना-आश्ना हो जाइए
बंदा-परवर जाइए अच्छा ख़फ़ा हो जाइए
मेरे उज़्र-ए-जुर्म पर मुतलक़ न कीजे इल्तिफ़ात
बल्कि पहले से भी बढ़ कर कज-अदा हो जाइए
ख़ातिर-ए-महरूम को कर दीजिए महव-ए-अलम
दर-पा-ए-ईज़ा-ए-जान-ए-मुब्तला हो जाइए
राह में मिलिए कभी मुझ से तो अज़-राह-ए-सितम
होंट अपना काट कर फ़ौरन जुदा हो जाइए
गर निगाह-ए-शौक़ को महव-ए-तमाशा देखिए
क़हर की नज़रों से मसरूफ़-ए-सज़ा हो जाइए
मेरी तहरीर-ए-नदामत का न दीजे कुछ जवाब
देख लीजे और तग़ाफ़ुल-आश्ना हो जाइए
मुझ से तन्हाई में गर मिलिए तो दीजे गालियाँ
और बज़्म-ए-ग़ैर में जान-ए-हया हो जाइए
हाँ यही मेरी वफ़ा-ए-बे-असर की है सज़ा
आप कुछ इस से भी बढ़ कर पुर-जफ़ा हो जाइए
जी में आता है कि उस शोख़-ए-तग़ाफ़ुल-केश से
अब न मिलिए फिर कभी और बेवफ़ा हो जाइए
काविश-ए-दर्द-ए-जिगर की लज़्ज़तों को भूल कर
माइल-ए-आराम ओ मुश्ताक़-ए-शिफ़ा हो जाइए
एक भी अरमाँ न रह जाए दिल-ए-मायूस में
यानी आख़िर बे-नियाज़-ए-मुद्दआ हो जाइए
भूल कर भी उस सितम-परवर की फिर आए न याद
इस क़दर बेगाना-ए-अहद-ए-वफ़ा हो जाइए
हाए री बे-इख़्तियारी ये तो सब कुछ हो मगर
उस सरापा नाज़ से क्यूँकर ख़फ़ा हो जाइए
चाहता है मुझ को तू भूले न भूलूँ मैं तुझे
तेरे इस तर्ज़-ए-तग़ाफ़ुल के फ़िदा हो जाइए
कशमकश-हा-ए-अलम से अब ये 'हसरत' जी में है
छुट के इन झगड़ों से मेहमान-ए-क़ज़ा हो जाइए
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