कभी लगता है उन पर मैं इनायत क्यों नहीं करता
उन्हीं की तरह उन से मैं मोहब्बत क्यों नहीं करता
मोहब्बत है अगर बढ़कर ज़माने से तुझे तो फिर
जहाँ की बंदिशों से तू बग़ावत क्यों नहीं करता
अगर तुझको ख़ुदा ने दस्तरस दी है मेरे दिल पर
तो फिर इस सल्तनत पर तू हुक़ूमत क्यों नहीं करता
कभी तुम आइने में ख़ुद को देखोगे तो समझोगे
तुम्हारी इक झलक पर दिल क़नाअ'त क्यों नहीं करता
तपिश में जब कोई साया मिला तो ये समझ आया
तुम्हारे दिल से कोई शख़्स हिजरत क्यों नहीं करता
किसी को तू ने अपनी ज़िन्दगी से गर निकाला है
तो उसकी याद को भी दिल से रुख़्सत क्यों नहीं करता
उसे मुझसे यही शिकवा है, मुझसे वो ये कहता है
शिकायत भी किया कर तू शिकायत क्यों नहीं करता
बड़े मायूस बैठे हैं सभी क़िस्मत को ले कर के
अगर हासिल है करना कुछ तो मेहनत क्यों नहीं करता
बिछड़ने पर अगर अफ़सोस होता है तुझे तो फिर
कभी जीते जी उस इंसाँ की इज्ज़त क्यों नहीं करता
अभी "हैदर" मेरे सर पर है इक दस्त-ए-करम माँ का
तुम्हें और क्या वजह दूँ के मैं हसरत क्यों नहीं करता
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