Akhgar Mushtaq Raheem Aabadi

Akhgar Mushtaq Raheem Aabadi

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Akhgar Mushtaq Raheem Aabadi shayari collection includes sher, ghazal and nazm available in Hindi and English. Dive in Akhgar Mushtaq Raheem Aabadi's shayari and don't forget to save your favorite ones.

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हंगामा-ए-आफ़ात इधर भी है उधर भी
बर्बादी-ए-हालात इधर भी है उधर भी

होंटों पे तबस्सुम कभी पलकों पे सितारे
ये दिल की करामात इधर भी है उधर भी

बेचैन अगर मैं हूँ तो वो भी हैं परेशाँ
दर-पर्दा कोई बात इधर भी है उधर भी

आशुफ़्तगी-ए-क़ल्ब-ओ-नज़र छुप न सकेगी
इक महशर-ए-जज़्बात इधर भी है उधर भी

हर चंद तकल्लुफ़ है मुलाक़ात में लेकिन
अरमान-ए-मुलाक़ात इधर भी है उधर भी

मुजरिम किसे गर्दानिये कहिए किसे मासूम
इक सैल-ए-शिकायात इधर भी है उधर भी

क्यूँकर कभी निकलेगी कोई सुल्ह की सूरत
इक तल्ख़ी-जज़्बात इधर भी है उधर भी

उन को भी कोई रंज है मुझ को भी कोई ग़म
इक फ़िक्र सी दिन रात इधर भी है उधर भी

अफ़्सोस भरी बज़्म में भी मिल नहीं सकते
कुछ पास-ए-रिवायात इधर भी है उधर भी

जो तर्क-ए-तअ'ल्लुक़ पे भी जाती नहीं दिल से
वो दिल की लगी बात इधर भी है उधर भी

नाले भी शरर-बार हैं नग़्मे भी शरर-बार
इक आतिश-ए-जज़्बात इधर भी है उधर भी

'अख़्गर' ही का दामन नहीं नमनाक शब-ए-ग़म
आँखों की ये बरसात इधर भी है उधर भी
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Akhgar Mushtaq Raheem Aabadi
ख़ुद नज़ारों पे नज़ारों को हँसी आती है
बाग़बानों पे बहारों को हँसी आती है

अब ये क्यूँ ज़िक्र-ए-बहाराँ पे चमन में अक्सर
फूल तो फूल हैं ख़ारों को हँसी आती है

मेहर-ओ-इख़्लास की दुनिया में ये क्या बात हुई
आज यारों ही पे यारों को हँसी आती है

ऐसी बे-जान सी है मेरे हरीफ़ों की हँसी
जैसे तूफ़ाँ पे किनारों को हँसी आती है

क्या करे आह वो बेचारा मुसाफ़िर जिस पर
आप की राह-गुज़ारों को हँसी आती है

कोई जब चाँद सितारों से हो मसरूफ़-ए-सुख़न
किस क़दर चाँद सितारों को हँसी आती है

ख़ैर हो ख़ैर मशिय्यत के इरादों की क़सम
आज तक़दीर के मारों को हँसी आती है

हाए किस मोड़ पे आया है अब अफ़्साना-ए-ग़म
मेरे अफ़्साना-निगारों को हँसी आती है

हम हैं महरूम-ए-मसर्रत तो कोई बात नहीं
ये भी क्या कम है सहारों को हँसी आती है

गर्दिश-ए-वक़्त ने क्या फिर कोई सूरत बदली
या यूँही वक़्त-गुज़ारों को हँसी आती है

शायद 'अख़्गर' ही की तौबा की ख़बर है यारो
आज साक़ी के इशारों को हँसी आती है
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Akhgar Mushtaq Raheem Aabadi
वो हज़ार हम पे जफ़ा सही कोई शिकवा फिर भी रवा नहीं
कि जफ़ा तो उन की ख़ता नहीं जिन्हें कोई क़द्र-ए-वफ़ा नहीं

मिरी बद-ज़नी पे ये रंजिशें तो किसी भी तौर बजा नहीं
कि जहान-ए-इश्क़ में बद-ज़नी तो हुज़ूर जुर्म-ओ-ख़ता नहीं

मिरे इश्क़ को तिरी बे-रुख़ी ही नसीब है तो यही सही
तिरी बे-रुख़ी रहे शादमाँ मुझे बे-रुख़ी का गिला नहीं

ये ग़लत कि महफ़िल-ए-नाज़ में कोई आश्ना-ए-नज़र न था
कोई तुम से कह तो रहा था कुछ मगर आह तुम ने सुना नहीं

उन्हें और इल्म-ए-रह-ए-वफ़ा ये यक़ीं भी आए तो किस तरह
कि उन्ही के दामन-ए-नाज़ पर कहीं ख़ाक-ए-राह-ए-वफ़ा नहीं

मिरे ऐ दिल-ए-अलम-आश्ना किसी वहम में न हो मुब्तला
तुझे रख सकेंगे वो याद क्या कभी जिन का दिल ही दुखा नहीं

ये मह-ए-दो-हफ़्ता की चाँदनी में दिल-ए-शिकस्ता की हसरतें
कभी मेरे दिल ही से पूछ लो जो तुम्हारे दिल को पता नहीं

ये कमाल-ए-जज़्बा-ओ-सर नहीं तिरे संग-ए-दर ही की बात है
तिरे एक दर पे जो झुक गया वो हज़ार दर पे झुका नहीं

उन्हें यूँ न दर से हटाइए उन्हें कुछ तो दे के ही टालिए
कि वही ग़रीब-ए-दयार हैं वो ग़रीब जिन का ख़ुदा नहीं
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Akhgar Mushtaq Raheem Aabadi
जुनून-ए-इश्क़ का जो कुछ हुआ अंजाम क्या कहिए
किसी से अब ये रूदाद-ए-दिल-ए-नाकाम क्या कहिए

फिरी क्यूँ कर निगाह-ए-साक़ी-ए-गुलफ़ाम क्या कहिए
भरी महफ़िल में अस्बाब-ए-शिकस्त-ए-जाम क्या कहिए

ये कैसी दिल में है इक ज़ुल्मत-ए-बे-नाम क्या कहिए
बुझा क्यूँ दफ़अ'तन अज़-ख़ुद चराग़-ए-शाम क्या कहिए

तग़ाफ़ुल पर वो दो हर्फ़-ए-शिकायत भी क़यामत थे
ज़माने भर के हम पर आ गए इल्ज़ाम क्या कहिए

मिरा दर्द-ए-निहाँ भी आज रुस्वा-ए-ज़माना है
इक आह-ए-ज़ेर-ए-लब भी बन गई दुश्नाम क्या कहिए

दर-ओ-दीवार पर छाए हुए हैं यास के मंज़र
दयार-ए-नामुरादी के ये सुब्ह-ओ-शाम क्या कहिए

जहान-ए-आरज़ू भी रफ़्ता रफ़्ता हो चला वीराँ
इक आग़ाज़-ए-हसीं का आह ये अंजाम क्या कहिए

उमीद-ओ-यास में ये रोज़-ओ-शब की कश्मकश तौबा
ब-हर-लम्हा फ़रेब-ए-गर्दिश-ए-अय्याम क्या कहिए

ये किस के दर से ता'ने मिल रहे हैं सज्दा-ओ-सर को
ये किस दर पर है ज़ौक़-ए-बंदगी बदनाम क्या कहिए

कहाँ का शिकवा-ए-ग़म हम तो बस शुक्र-ए-सितम करते
मगर शुक्र-ए-सितम का भी है जो अंजाम क्या कहिए

अदा-ए-बद-गुमानी भी सरिश्त-ए-इश्क़ है लेकिन
ये क्यूँ कर बन गई मिनजुमला-ए-इल्ज़ाम क्या कहिए

रहेंगे हश्र तक मम्नून-ए-एहसान-ए-दिल-आज़ारी
ख़ुलूस-ए-इश्क़ पर ये क़ीमती इनआ'म क्या कहिए

बढ़ी जाती है अब तो और भी कुछ दूरी-ए-मंज़िल
अचानक नौ-ब-नौ-दुश्वारी-हर-गाम क्या कहिए

वो अपनी सई-ए-तजदीद-ए-जुनूँ भी राएगाँ ठहरी
बस अब आगे मआल-ए-हसरत-ए-नाकाम क्या कहिए

न समझे आज तक रंग-ए-मिज़़ाज-ए-यार-ए-बे-परवा
मगर फिर भी ज़बाँ पर है उसी का नाम क्या कहिए
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Akhgar Mushtaq Raheem Aabadi