Amir Usmani

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@amir-usmani

Amir Usmani shayari collection includes sher, ghazal and nazm available in Hindi and English. Dive in Amir Usmani's shayari and don't forget to save your favorite ones.

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  • Ghazal
दर्द बढ़ता गया जितने दरमाँ किए प्यास बढ़ती गई जितने आँसू पिए
और जब दामन-ए-ज़ब्त छुटने लगा हम ने ख़्वाबों के झूटे सहारे लिए

इश्क़ बढ़ता रहा सू-ए-दार-ओ-रसन ज़ख़्म खाता हुआ मुस्कुराता हुआ
रास्ता रोकते रोकते थक गए ज़िंदगी के बदलते हुए ज़ाविए

गुम हुई जब अंधेरों में राह-ए-वफ़ा हम ने शम-ए-जुनूँ से उजाला किया
जब न पाई कोई शक्ल-ए-बख़िया-गरी हम ने काँटों से ज़ख़्मों के मुँह सी लिए

उस के वादों से इतना तो साबित हुआ उस को थोड़ा सा पास-ए-तअल्लुक़ तो है
ये अलग बात है वो है वादा-शिकन ये भी कुछ कम नहीं उस ने वादे किए

ख़त्म होने को है क़िस्सा-ए-ज़िंदगी अब हमें आप से कोई शिकवा नहीं
टल न जाए कहीं मौत आई हुई पुर्सिश-ए-ग़म की ज़हमत न फ़रमाइए

जब हिजाबों में पिन्हाँ था हुस्न-ए-बुताँ बुत-परस्ती का भी एक मेयार था
अब तो हर मोड़ पर बुत ही बुत जल्वागर अब कहाँ तक बुतों को ख़ुदा मानिए

कितने अरबाब-ए-हिम्मत ने उन के लिए बढ़ के मैदान में जान भी हार दी
अब भी उन की निगाहों में है बद-ज़नी अब भी उन को वफ़ा की सनद चाहिए

जिस ने लूटा था उस को सलामी मिली हम लुटे हम को मुल्ज़िम बताया गया
मस्त आँखों पे इल्ज़ाम आया नहीं हम पे लगती रहीं तोहमतें बिन पिए

जिस ने 'आमिर' मता-ए-ख़ुदी बेच दी सच ये है इस्मत-ए-ज़िंदगी बेच दी
सर झुकाने से बेहतर है सर दीजिए भीक लेने से बेहतर है मर जाइए
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Amir Usmani
दिल पे वो वक़्त भी किस दर्जा गिराँ होता है
ज़ब्त जब दाख़िल-ए-फ़रियाद-ओ-फ़ुग़ाँ होता है

कैसे बतलाएँ कि वो दर्द कहाँ होता है
ख़ून बन कर जो रग-ओ-पै में रवाँ होता है

इश्क़ ही कब है जो मानूस-ए-ज़बाँ होता है
दर्द ही कब है जो मोहताज-ए-बयाँ होता है

जितनी जितनी सितम-ए-यार से खाता है शिकस्त
दिल जवाँ और जवाँ और जवाँ होता है

वाह क्या चीज़ है ये शिद्दत-ए-रब्त-ए-बाहम
बार-हा ख़ुद पे मुझे तेरा गुमाँ होता है

कितनी पामाल उमंगों का है मदफ़न मत पूछ
वो तबस्सुम जो हक़ीक़त में फ़ुग़ाँ होता है

इश्क़ सर-ता-ब-क़दम आतिश-ए-सोज़ाँ है मगर
उस में शोला न शरारा न धुआँ होता है

क्या ये इंसाफ़ है ऐ ख़ालिक़-ए-सुब्ह-ए-गुलशन
कोई हँसता है कोई गिर्या-कुनाँ होता है

ग़म की बढ़ती हुई यूरिश से न घबरा 'आमिर'
ग़म भी इक मंज़िल-ए-राहत का निशाँ होता है
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