Laiq Siddiqi

Laiq Siddiqi

@laiq-siddiqi

Laiq Siddiqi shayari collection includes sher, ghazal and nazm available in Hindi and English. Dive in Laiq Siddiqi's shayari and don't forget to save your favorite ones.

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  • Ghazal
ज़िंदगी नाज़ करे जिस पे वो पहचान बने
देखिए आज का इंसान कब इंसान बने

एक अफ़्साना मोहब्बत का लिखा था हम ने
और दुनिया के लिए सैकड़ों उन्वान बने

सब्र और शुक्र की मंज़िल से वो गुज़रा ही नहीं
जो परेशाँ न हुआ और परेशान बने

क्या कहूँ इस के सिवा और मोहब्बत क्या है
दिल की रग रग में समा कर वो मिरी जान बने

ज़िंदगी में मिरी इक ऐसा भी वक़्त आया है
जानने वाले मुझे देख के अंजान बने

इश्क़ में ख़ाना-ए-दिल दोनों के वीरान रहे
मुझ को मेहमान बनाया न वो मेहमान बने

चंद काँटों के सिवा शाख़ों में रक्खा क्या है
कौन ऐसे में गुलिस्ताँ का निगहबान बने

मिल गया जहद-ए-मुसलसल का सिला मुझ को 'लईक़'
कल के ग़म आज मिरे ऐश का सामान बने
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Laiq Siddiqi
ये देख ज़िंदगी के लिए है पयाम क्या
दिन क्या है रात क्या है सहर क्या है शाम क्या

मंज़िल की जुस्तुजू है तो चलते चले चलो
ग़ुर्बत में थोड़ी देर ठहर कर क़याम क्या

जब नेक और बद में न रह जाए इम्तियाज़
होगा किसी का ऐसे में फिर एहतिराम क्या

आप अपने दुश्मनों को भी दुश्मन न जानिए
पड़ जाए कल उन्हीं से ख़ुदा जाने काम क्या

इंसान अपने आप को पहचानता नहीं
ये सोचता नहीं कि है उस का मक़ाम क्या

दुनिया-ए-ज़िंदगी में मुसावात चाहिए
इस सिलसिले में शर्त-ए-ख़वास-ओ-अवाम क्या

दुनिया में कोई नाम अछूता नहीं रहा
बदलोगे अपना नाम तो रक्खोगे नाम क्या

जिस हाल में भी गुज़रे गुज़र जाएगी 'लईक़'
थोड़ी सी ज़िंदगी के लिए एहतिमाम क्या
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Laiq Siddiqi
दिन मिले रात मिले सुब्ह मिले शाम मिले
इश्क़ सादिक़ हो तो तकलीफ़ में आराम मिले

दो किनारे कभी दरिया के न मिल पाएँगे
कैसे फिर ज़ीस्त के आग़ाज़ से अंजाम मिले

ज़िंदगी दर्द-ए-मोहब्बत से सजा रक्खी है
घुट के मर जाऊँ जो दिल को मिरे आराम मिले

नज़्म मयख़ाने का क़ाएम है उन्हीं से साक़ी
तेरे ख़ुम-ख़ाने में जो लोग तही-जाम मिले

सब हैं बेताब तिरी एक नज़र की ख़ातिर
देखिए किस को मोहब्बत में ये इनआ'म मिले

मैं मोहब्बत में तिरे नाम से आगे न बढ़ा
मुझ को इस राह में हर चंद कई नाम मिले

दुश्मनों से तो किसी जुर्म की पाई न सनद
दोस्तों से मुझे इल्ज़ाम ही इल्ज़ाम मिले

दर्द को इस लिए सीने से लगा रक्खा है
हद से बढ़ जाए तो कुछ जिस्म को आराम मिले

अपनी तक़दीर पे वो नाज़ करे क्यों न 'लईक़'
जिस को दुनिया न मिले आप का पैग़ाम मिले
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Laiq Siddiqi
अपनी अज़्मत का निगहबान नहीं है कोई
क्या अब इस दौर में इंसान नहीं है कोई

जिस तरफ़ देखिए इशरत की फ़रावानी है
ऐसा लगता है परेशान नहीं है कोई

जो समझता ही न हो हक़्क़-ओ-सदाक़त क्या है
आज-कल इतना भी नादान नहीं है कोई

अपना हर ऐब नज़र आता है आईने में
देख कर फिर भी पशेमान नहीं है कोई

पाँव जब रखिए ज़मीं पर तो रहे ध्यान इस का
ख़ाक के ज़र्रों में बे-जान नहीं है कोई

हौसला साँसों से मिलता है तो जी लेता हूँ
ज़िंदगी पर मिरा एहसान नहीं है कोई

सब को मालूम है बदली हुई सूरत अपनी
आइना देख के हैरान नहीं है कोई

ज़िंदगी ग़म में बसर करना है मुश्किल लेकिन
मुस्कुरा देना भी आसान नहीं है कोई

कोई कश्ती नहीं महफ़ूज़ किनारे पे 'लईक़'
जब से दरियाओं में हैजान नहीं है कोई
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Laiq Siddiqi