ज़ार ज़ार रोये हैं बार बार रोये हैं
ज़िन्दगी तेरी ख़ातिर बेशुमार रोये हैं
भीड़ ग़मगुसारों की साहिलों पे थी, सच है
जो थे डूबने वाले ज़ार ज़ार रोये हैं
अश्क- बारी गिन गिन के इश्क़ में नहीं लाज़िम
हमसे ये न पूछो के कितनी बार रोये हैं
होश में रखा हमने होंठो पे तबस्सुम पर
मयकदा गये जब भी पुर ख़ुमार रोये हैं
चैन कब पड़ा हमको इस जहान में आकर
हम अज़ल से आख़िर तक बेक़रार रोये हैं
ठीक वक़्त पे हमको रोना भी नहीं आया
पूरी ज़िन्दगी हम तो बे-बहार रोये हैं
पाक राहों पे चलकर ये सिला मिला हमको
साफ़ जिस्म था लेकिन दाग़दार रोये हैं
कुछ सिला मुहब्बत का 'हैफ़' को भी देते तुम
रुख़सती ए जानां पे हम भी यार रोये हैं
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