Zaheer Siddiqui

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Zaheer Siddiqui shayari collection includes sher, ghazal and nazm available in Hindi and English. Dive in Zaheer Siddiqui's shayari and don't forget to save your favorite ones.

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  • Nazm
ये घर बहुत अज़ीम था
ये घर बहुत हसीन था
कि उस के इर्द-गिर्द दूर दूर तक
कोई मकान उस से बढ़ के था नहीं
मगर यहाँ का चख अजब रिवाज था
थे बिन-बुलाए अजनबी
कि जिन का घर पे राज था
सजे सजाए कमरे उन के शब-कदे
वो सब्ज़ लॉन फूल की कियारियाँ
वसीअ' सहन-ओ-साइबाँ
थे उन के वास्ते मगर
ख़ुद अपने घर में अजनबी
मकीन चौखटों पे
रातें अपनी काटते रहे
सड़क गली की ख़ाक छानते रहे
वो बिन-बुलाए अजनबी
गदेले बिस्तरों पे
लज़्ज़त-ए-शब-ओ-सहर में मस्त मस्त थे

उसी तरह न जाने कितनी उम्र काटने के बा'द
रफ़्ता रफ़्ता
सख़्त-ओ-सर्द चौखटों ने
नर्म-ओ-गर्म बिस्तरों की गुदगुदी
का ज़ाइक़ा समझ लिया
दिमाग़-ओ-दिल की ख़ुश्क वादियों में
आरज़ू के आबशार गुनगुना उठे
सियाह-बख़्त रात
शुऊर के जुनून-ए-शौक़ के चराग़ जल गए
चराग़ से कई चराग़ जल गए
ब-यक ज़बान
चौखटों से ये मुतालबा हुआ
कि अजनबी हमारे घर को छोड़ दें
ये घर हमारे ख़ून
और हमारी हड्डियों से है
ये बात सुन के शब-कदे लरज़ गए
थी चौंकने की बात ही
कि साल-ख़ूर्दा अंधी चौखटों पे
रौशनी कहाँ से आ गई
गली की ख़ाक
आसमाँ पे अब्र बन के छा गई
कहाँ से ज़ेहन-ए-ना-रसा में
बात ऐसी आ गई

वो अजनबी
नवाज़िशों इनायतों से
उन का जोश सर्द जब न कर सके
तो नित-नई सज़ाओं और धमकीयों
गली गली लहू लहू
सड़क सड़क धुआँ धुआँ
मगर जुनून-ए-शौक़ की सदा
ज़मीं से आसमाँ
सज़ाएँ सख़्त थीं मगर
मुतालबा अज़ीज़ था
नवाज़िशें इनायतें
सज़ाएँ और धमकियाँ
सदा-ए-हक़ जुनून-ए-शौक़ दामनों की धज्जियाँ
मुक़ाबला भी ख़ूब था
कहाँ ज़मीन-ए-हिर्स
और कहाँ जुनूँ का आसमाँ
मआल-ए-कश्मकश वही हुआ
जो होना चाहिए
वो अजनबी चले गए
मकीन अपने घर को पा के
अपने घर को पा के
अपने घर में आ गए
वो घर के जिस के वास्ते
लगा दी अपनी जान भी
जो मिल गया तो यूँ हुआ
कि जैसे कुछ नहीं हुआ
अजीब माजरा है अब
जुनून-ए-इश्क़ ने चराग़-ए-आरज़ू जलाए थे
उसी की तेज़ लौ से ये मकीन
अपने घर को शौक़ से जला रहे हैं
सब्ज़ लॉन में क्यारियों के फूल
अपने पाँव से कुछ रहे हैं
साएबान के सुतून ढा रहे हैं
अल-ग़रज़
जो आज घर का हाल है
हमारे पास लफ़्ज़ ही नहीं
कि हम बयाँ करें

जो सच कहो तो आज भी
ये घर बहुत हसीन है
मकीन ही अजीब हैं
बड़े ही बद-नसीब हैं
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वैसे उस तारीक जंगल के सफ़र के क़ब्ल भी
हाथ में उस के
यही इक टिमटिमाता काँपता नन्हा दिया था
कुछ तो शोहरत की हवस ने
और कुछ अहमक़ बही-ख़्वाहों ने
इस की सादा-लौही को सज़ा दी
उस के तिफ़्लाना इरादा को हवा दी
ला के सरहद पर ख़ुदा-हाफ़िज़ कहा
उस के ख़िज़ाब-आलूदा सर को ये सआ'दत दी
धुआँ खाई हुई
बद-रंग दस्तार-ए-क़यादत दी
तो वो सीना फुलाए
अपनी दस्तार-ए-क़यामत को सँभाले
काँपते नन्हे दिए को
एक मशअ'ल की तरह ऊँचा उठाए
चल पड़ा था
ग़ालिबन वो दो-क़दम ही जा सका होगा
कि पीली आँधियों ने
दस्त-ए-लर्ज़ां में लरज़ते उस दिए को
नज़्अ' की हिचकी अता की
उस पे तेरा
छीन ली दस्तार उस की
उस ने आग़ाज़-ए-सफ़र की सारी ख़ुश-फ़हमी
बिखरती देख कर
जब लौटना चाहा
तो ये मुमकिन नहीं था
हर तरफ़ तारीकियाँ थीं
दफ़अ'तन कुछ दूर पीछे
उस ने देखा
आसमाँ से बात करती धूल की दीवार
बढ़ती आ रही है
और कुछ क़ुर्बत हुई तो उस ने देखा
वो कई थे
उन के हाथों में भड़कती मिशअलें थीं
कासा-ए-नमनाक से उस ने
ग़रज़ की गंदगी
जो उस को फ़ितरत में मिली थी
पोंछ डाली
और फ़ौरन ग़ाज़ा-ए-मासूम
ये उस की आदत बन चुकी थी
अपने चेहरे पर चढ़ाया
एक ही मक़्सद था या'नी
धूल उड़ाते क़ाफ़िले से
एक मशअ'ल ले सके वो
ग़ाज़ा-ए-मासूमियत फिर काम आया
क़ाफ़िला वालों ने उस को
एक मशअ'ल दे के
अपने साथ चलने को कहा
लेकिन कहाँ तक
वो निहायत तेज़-रौ और यक-क़दम थे
उस के नाज़ पावँ
सूखी हड्डियों के ज़ोर पर क्या साथ देते
एक क़दम या दो-क़दम
फिर थक गया वो
रफ़्ता रफ़्ता
उस की वो माँगी हुई मशअ'ल
ख़ुद अपने रंग-ओ-रोग़न खा रही थी
अब फ़क़त भेंची हुई मोहतात मुट्ठी में
अँधेरे की छड़ी थी
बाद-ओ-बाराँ तेज़ तूफ़ाँ
ज़ेहन-ए-तिफ़्लक में सफ़र के क़ब्ल
उन दुश्वारियों का
एक हल्का सा तसव्वुर भी नहीं था
अब जो ये बर-अक्स सूरत हो गई थी
रो पड़ा वो
उस की पस्पाई में लेकिन हौसला था
दामन-ए-उम्मीद अब भी हाथ में था
दफ़अ'तन उस ने ये देखा
धुँदली गहरी रौशनियों के कई हालों में
कुछ बढ़ते क़दम नज़दीक होते जा रहे थे
उन के होंटों से ख़मोशी छिन रही थी
सुस्त-रौ थे
फिर भी उन की चाल में इक तमकनत थी
उस ने सोचा
उन नए लोगों की तरह तेज़ नहीं है
उन की हमराही में
क़दमों की नक़ाहत बे-असर है
और मंज़िल एक सई-ए-मुख़्तसर है
इक नई उम्मीद ले कर
पुश्त पर मुर्दा दिए तारीक मशअ'ल को छुपा कर
गुफ़्तुगू में मस्लहत आमेज़ नर्मी घोल कर
उस ने नए लोगों से इक मशअ'ल तलब की

उफ़ वो कैसा क़ाफ़िला था
किस तिलस्माती जहाँ के लोग थे वो
इस क़दर तारीक राहों में
बड़ी ही तमकनत से चल रहे थे
और हाथों में कोई मशअ'ल नहीं थी
रौशनी थी
उन की आँखों के दरीचों से उतर कर
अपने क़दमों से लिपट कर चलने वाली
अपनी अपनी रौशनी थी
उस ने सोचा
उन के क़दमों से लिपट कर चलने वाली
धीमी धीमी रौशनी के अक्स
क्या उस के लिए काफ़ी नहीं हैं

आज भी वो
पुश्त पर मुर्दा दिया तारीक मशअ'ल को छुपाए
उन नए लोगों के पीछे
उन के क़दमों में लरज़ती रौशनियों के सहारे
ठोकरें खाता सँभलता सोचता है
रौशनी तो ख़ारिजी शय है
दिया है
या भड़कती मिशअलें हैं
आख़िरश ये रौशनी
उन अजनबी लोगों की आँखों से उतर कर
उन के क़दमों से लिपट कर
चलने वाली रौशनी कैसी है
कैसी रौशनी है
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Zaheer Siddiqui
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ग़ैरत है कि हया
नाम उस का न लिया जिस को पुकारा उस ने
उस गई रात के सन्नाटे में कौन आया है
बंद दरवाज़े के मजस में तो सीता ही है
और बाहर
कोई रावन तो नहीं
कौन है कौन की सहमी सी सदा
वो भी कुछ कह न सका मैं के सिवा
दस्तकें राम के मख़्सूस ज़बाँ रखती हैं
गोश-ए-सीता के लिए मुज़्दा-ए-जाँ रखती हैं
बल्ब रौशन हुआ और चाप क़दम की उभरी
चूड़ियाँ बोल उठीं
उँगलियाँ काठ की मिज़राब पे फिर रेंग गईं
दोनों पट ख़्वाब से चौंके तो मअ'न चीख़ उठे
एक हंगामा हुआ रात का अफ़्सूँ टूटा
मुंतज़र साया-ए-ख़जालत के धुआँ से उभरा
रात काफ़ी हुई तुम जाग रही हो अब तक
आज फिर देर हुई
असल में आज अजब बात हुई
ठीक है ठीक कोई बात नहीं
मुंतज़िर शाख़ जो लचकी तो कई फूल झड़े
आप मुँह हाथ तो धो लें पहले
और मिंटों में मैं साल को ज़रा गर्म करूँ
प्यार की आग भी रौशन हुई स्टोव के साथ
दश्त-ए-तन्हाई के इफ़रीत बहुत दूर हुए
वसवसे जितने थे दिल में सभी काफ़ूर हुए
हरकत और हरारत में मगन दोनों बदन
ये किराया का मकाँ है कि मोहब्बत का चमन
एक एक लुक़्मा पे होती हैं निगाहें दो-चार
एक एक जुरए में महलूल तबस्सुम की बहार
मुज़्तरिब दिल में मुनव्वर हैं मसर्रत के चराग़
जानी-पहचानी सी ख़ुश्बू में है मसहूर-ए-दिमाग़
आँखों आँखों में सियह रात कटेगी अब तो
होंट से होंट की सौग़ात बटेगी अब तो
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Zaheer Siddiqui
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अल्लामा-इक़बाल के हुज़ूर
फ़ितरत का कारोबार तो चलता है आज भी
महताब बर्ग-ए-गुल पे फिसलता है आज भी
क़ुदरत ने हम को दौलत-ए-दुनिया भी कम न दी
सय्याल ज़र-ए-ज़मीं से उबलता है आज भी
दुनिया में रौशनी भी हमारे ही दम से है
मशरिक़ से आफ़्ताब निकलता है आज भी

पर मंज़र-ए-ग़ुरूब बहुत दिल-नशीं है क्यूँ
मग़रिब की शाम अपनी सहर से हसीं है क्यूँ
इस कश्मकश में दौलत-ए-उक़्बा भी छिन गई
ज़ौक़-ए-जुनूँ से वुसअ'त-ए-सहरा भी छिन गई
सहरा-ए-आरज़ू में तग-ओ-दौ नहीं रही
पा-ए-तलब से वादी-ए-सीना भी छिन गई
तू ने तो क़र्तबा में नमाज़ें भी कीं अदा
अपनी जबीं से मस्जिद-ए-अक़्सा भी छिन गई
कोहसार रौंद डाले गए खेत हो गए
चट्टान हम ज़रूर थे अब रेत हो गए
मंज़िल पे आ के लुट गए हम रहबरों के साथ
बीमार भी पड़े हैं तो चारागरों के साथ
ग़ुर्बत-कदे में काश उतर आए कहकशाँ
आँखें फ़लक की सम्त हैं बोझल सरों के साथ
उड़ना मुहाल लौट के आना भी है वबाल
ज़ख़्मी दुआ ख़ला में है टूटे परों के साथ
इस रज़्म-ए-ख़ैर-ओ-शर में हुआ कौन सुरख़-रू
ज़र्ब-ए-कलीम कुंद है फ़िरऔन सुर्ख़-रू
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Zaheer Siddiqui
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आओ आ जाओ क़रीब आओ
कि कुछ बात बने
इतनी दूरी है कि आवाज़ पहुँचती ही नहीं
मैं किसी ग़ैर ज़बाँ के अल्फ़ाज़
अपने अशआ'र में शामिल तो नहीं करता हूँ
दुख तो इस बात का है तुम ये समझते ही नहीं
मेरे सीने में मचलता है
तुम्हारा दुख भी
मेरे अल्फ़ाज़ में शामिल है तुम्हारी आवाज़
मेरे जज़्बात में ख़ुफ़्ता हैं
तुम्हारे जज़्बात
मैं जो अद पर हूँ तो बस एक ही मक़्सद है मिरा
फ़र्श से अर्श का कुछ राब्ता बाक़ी तो रहे
मैं हूँ जिस ज़ीने पे
तुम उस पे नहीं आ सकते
और मैं नीचे बहुत नीचे नहीं जा सकता
ये तफ़ावुत तो अज़ल ही से है क़ाएम
लेकिन
तुम कभी इतने गराँ गोश न थे

सीढ़ियाँ जितनी भी ऊपर जाएँ
पाँव तो उन के ज़मीं से ही लगे रहते हैं
इक ज़रा क़ुर्ब-ए-समाअ'त के लिए
कितने ही ज़ीने मैं उतरा हूँ तुम्हारी ख़ातिर
झाड़ कर अपने बंद की मिट्टी
चंद ज़ीने ही सही
तुम भी तो ऊपर आओ
और नीचे न उतारो मिरे सामेअ' मुझ को
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Zaheer Siddiqui
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वो इक शय
कि जिस के लिए पाक तीनत बुज़ुर्गों ने
अपने बदन ज़ेहन के सारे जौहर गँवाए
लहू के गुहर
ख़ार-ज़ारों की पहनाइयों में लुटाए
वो इक शय
जिसे उन जियाले बुज़ुर्गों ने जेब-ओ-गरेबाँ
दिल-ओ-जाँ से भी बढ़ के समझा
जो हासिल हुई तो
अभी बाम-ओ-दर से सियह-रात लिपटी हुई थी
सफ़र की थकन या
गिराँ-बारी उम्र ने
उन के आ'साब को मुज़्महिल कर दिया था
उन्हों ने ये सोचा
ख़ुदा जाने सूरज निकलने तलक क्या से क्या हो
हसीं बे-बहा शय के हक़दार
उन के जवाँ-साल बच्चे हैं
उस की हिफ़ाज़त वही कर सकेंगे
जवाँ-साल बच्चे
अभी बिस्तर-ए-इस्तिराहत पे सोए हुए थे
जगाए गए
सुब्ह-ए-काज़िब की धुंदलाहटों में
चमकती हुई वो हसीं शय
विरासत में उन को मिली थी
मगर सब ने देखा था सूरज निकलने पे
उन सुस्त-ओ-चालाक बच्चों
के हाथों में महफ़ूज़-ओ-क़ीमती शय
ब-तदरीज अपनी चमक खो रही थी
तिलिस्म-ए-तसव्वुर नहीं ये हक़ीक़त है
वो बे-बहा शय
कि जिस के लिए
हर सऊबत गवारा है
मंज़िल नहीं
जुस्तुजू है
वो इक चीज़ जिस पर निछावर
जियालों का रौशन लहू है
फ़क़त रंग-ओ-बू ही नहीं
गुलिस्ताँ की हुमकती हुई आरज़ू है

हर इक नफ़अ' जाएज़ नुक़सान के बत्न से है
उन्हों ने जो हासिल किया वो ज़ियादा था
और आख़िर शब के कुछ ख़्वाब को जो गँवाया
वो कम था
इसी ना-तनासुब हुसूल-ओ-ख़सारा का रद्द-ए-अमल है
कि मंज़िल की आग़ोश में भी
उन्हें सुख नहीं है
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Zaheer Siddiqui
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राह तारीक थी दुश्वार था हर एक क़दम
मंज़िल-ए-ज़ीस्त के हर गाम पे ठोकर खाई
मशअ'ल-ए-अज़्म लिए फिर भी में बढ़ता ही रहा
दर्द-ओ-आलाम की आँधी जो कभी तेज़ हुई
दामन-ए-शौक़ में मशअ'ल को छुपाया मैं ने
बहर बंदगी-ओ-शो'लगी मशअ'ल-ए-अज़्म
मेरी शिरयानों का हर क़तरा-ए-ख़ूँ वाक़िफ़ हुआ
दामन-ए-शौक़ भी जल-बुझ के कहीं राख हुआ
और फिर धुँदली हुई बुझती गई मशअ'ल-ए-अज़्म
राह कुछ और भी तारीक वो सियह होती गई
घोर अँधियारे के इफ़रीत मुझे डसते रहे
ज़िंदगी अपनी उन ही भूल-भुलय्यों में रही
अपनी मंज़िल का मगर मुझ को पता मिल न सका

हम-सफ़र और भी कुछ साथ चले थे मेरे
उन में वो जोश-ए-जुनूँ और न वो अज़्म-ओ-यक़ीं
मस्त-ओ-सरशार रहे बादा-ए-ग़फ़लत पी कर
ख़्वाब-ए-ख़रगोश में हर गाम पे मदहोश रहे
उन की मंज़िल ने मगर उन के क़दम चूम लिए

उन की उस नुसरत-ए-बे-जा पे मुझे रश्क नहीं
आज भी मुझ में है वो जोश-ए-जुनूँ अज़्म-ओ-यक़ीं
आज भी नाज़ है गो जहद-ओ-अमल पे अपने
मस्लहत-कोश नहीं आज भी मासूम-ए-जुनूँ
ख़िज़्र की बेजा ख़ुशामद पे नहीं राज़ी हुनूज़
हाँ मगर ज़ेहन के पर्दे पे उभरते हैं सवाल
ख़िज़्र की बेजा ख़ुशामद ही मुक़द्दम है यहाँ
वस्ल-ए-मंज़िल के लिए पा-ए-जुनूँ शर्त नहीं
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Zaheer Siddiqui
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वो साल-ख़ूर्दा चट्टानें
जो आसमाँ को छूते हुए
बगूलों की ज़द में साबित रही हैं
अब रेग-ज़ार में मुंतक़िल हुई हैं
हुआ के नाज़ुक ख़फ़ीफ़ झोंके पे मुश्तइ'ल हैं

उड़ी जो गर्द ता क़दम भी
तो अब्र बन के फ़लक पे छाई
मगर जो सूरज ने आँख मल के उसे कुरेदा
तो ख़ाक हो कर वहीं गिरी है
हुआ के रफ़्तार कब रुकी है
बहाओ दरिया का मुस्तक़िल है
ख़फ़ीफ़ ख़ुनकी है सल्ब है शब में
ज़मीं मेहवर पे घूमती है
अभी भी रहम ज़मीन में
ठोस और सय्याल दौलतों की

कमी नहीं है
हर एक शय है
हर एक शय है
वो वक़्त लेकिन
वो वक़्त फैला हुआ था

कोहसारों आबशारों
सुलगते सहराओं
गहरे फैले समुंदरों में
अब ऊँची इमारतों
क़हवा ख़ानों बारों
फिसलती कारों चमकती सड़कों
घड़ी के महदूद हिंदिसों में
सिमट गया है
वो जिस की उँगली से चाँद शक़ हो
वो जिस के ज़ख़्मी दहन से
दुश्मन की फ़ौज पर
रहमतों की ठंडी फुवार बरसे
वो जिस की मुट्ठी में
वो जहाँ की तमाम दौलत
तमाम सर्वत सिमट गई हो
वो अपने ख़ाली शिकम में पत्थर का बोझ बाँधे
कहाँ हैं इस के ग़ुलाम
आख़िर कहाँ हैं इस के
वो निस्फ़ बाक़ी भी मिल चुका था
ये निस्फ़ हासिल भी छिन चुका है
हुसूल कल सहल ही था लेकिन
वो एक मंज़र
फिसलती कारों चमकती सड़कों की हाव-हू में
वो एक मंज़र
ग़ुलाम नाक़ा नशीन हो और
नकेल आक़ा के हाथ में हो
कहाँ से आए
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Zaheer Siddiqui
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अभी फ़क़त तीन ही बजे हैं
अभी तो उस की रगों की कुछ और रौशनाई
तनी हुई मेज़ पर पड़े
फ़ाइलों के काग़ज़ में जज़्ब होगी
ज़रूरतें
उस के रेग-ज़ार-ए-हयात के
नन्हे नन्हे पौदों की आबियारी
किसी के नाज़ुक उदास होंटों पे
मुस्कुराहट की लाला-कारी
गुदाज़ बाँहों के नर्म हल्क़े में
गर्म साँसों की शब-गुज़ारी
ज़रूरतों का वो इक पुजारी
जो अपने सारे लहू के ग़ुंचे
मसाफ़त आफ़्ताब के
दस से पाँच तक के
क़बीह लम्हों के देवता के क़दम पे
क़ुर्बान कर रहा है
वो देवता
जिस ने साल-हा-साल की रियाज़त
और उस के इल्म-ओ-सलाहियत के गवाह
इन डिग्रियों के अल्फ़ाज़ को
जो इस से लिबास-ए-मफ़्हूम चाहते थे
बरहनगी दी
ज़रूरतें
इस की नन्हे पौदों
उदास होंटों
गुदाज़ बाँहों की रोज़ की हैं
ज़रूरतों का वो इक पुजारी
लहू के ग़ुंचों का ये चढ़ावा तो रोज़ का है
अभी फ़क़त तीन ही बजे हैं
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Zaheer Siddiqui
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और जब उन के अज्दाद की सरज़मीं
जिस की आग़ोश में वो पले
तंग होने लगी
जब उसूलों की पाकीज़गी
और गंदा रिवायात में
जंग होने लगी
तो उन्हें आसमाँ से हिदायत मिली
नेक बंद तुम्हारे लिए
ये ज़मीं एक है
उस सफ़र में तुम्हें रिज़्क़ की फ़िक्र है
क्या अनाजों की गठरी उठाए
चरिन्दों परिंदों को देखा कभी
ज़ाद-ए-रह
नेक आ'माल हैं
मेरे अहकाम हैं
मौत का ख़ौफ़ बे-कार है
आख़िरी साँस के बा'द
सब को पलटना है मेरी तरफ़
तुम फ़क़त जिस्म ही तो नहीं
अपने अंदर सुलगती हुई रौशनी
के सहारे बढ़ो
एक ही जस्त में
दस्त-ओ-दरिया की फैली हुई
वुसअ'तें नाप लो
चप्पे चप्पे पे अपने नुक़ूश-ए-क़दम
इस तरह सब्त कर दो
कि उन अजनबियों की हैरत मिटे
और पैहम तआ'क़ुब में दुश्मन जो हैं
उन की ख़िफ़्फ़त बढ़े
मेरे अहकाम की रौशनी
सब के दिल में उतारो
कि ऐवान-ए-तसलीस में
शम-ए-वहदत जले
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Zaheer Siddiqui
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इसराईल मिस्र जंग में कर्नल नासिर के नारे
हम बेटे फ़िरऔन के से मुतअस्सिर हो कर

यही वो कोहसार हैं जहाँ
मुश्त-ए-ख़ाक नूर-आश्ना हुई थी
यही वो ज़र्रात-ए-रेग हैं
जो किसी के बेताब वालिहाना क़दम
की ठोकर से
कहकशाँ कहकशाँ हुए थे
यही वो पथरीली वादियाँ हैं
कि जिन की आग़ोश-ए-ख़ुश्क में
दो धड़कते मा'सूम दिल मिले थे
और आज हर-सू
है दूद-ए-बारूद की रिदा
जिस में हर किरन रौशनी की
मादूम हो गई है
उजाड़ संगीन वादियों में
हवस का इफ़रीत
गोसफ़ंदान-ए-अर्ज़-ए-मदयन को
खा गया है
न कोई बिंत-ए-शुऐब है
और न रहरव-ए-तिश्ना ही है कोई
कुएँ के पास में
जौहरी ज़हर घुल गया है

तजल्ली-ए-लम-यज़ल कहाँ की
ये तेज़ संगीनों की चमक है
कलीम ही जब नहीं है कोई
कलाम कैसा
मुहीब तोपों की ये धमक है
किसी के मा'सूम वालिहाना क़दम की
ये कहकशाँ नहीं है
ये रेग-हा-ए-ज़मीन ही हैं
जो आहनी असलहों की आतिश में तप गए हैं

सवाद-ए-साहिल
असा-ब-दस्त अब नहीं है कोई
तो मो'जिज़ा क्या तिलिस्म कैसा
ये सत्ह-ए-दरया-ए-नील गुल-गू जो हो गई है
असा का ए'जाज़ तो नहीं
ये रिदा-ए-ख़ूँ है रिदा-ए-ख़ूँ है
ये ख़ून किस का है
ऐ दिल-ए-ज़ूद-रंज तो क्यूँ उदास है
ख़ैर-ओ-शर की ये कश्मकश नहीं है
कि दोनों जानिब ही
आस्तीन-ए-हवस में
फ़िरऔनियत के ज़हरीले अज़दहे हैं
सवाद-ए-साहिल
असा-ब-दस्त अब नहीं है कोई
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