शहर का शहर जला और उजाला न हुआ
सानेहा क्या ये मुक़द्दर का निराला न हुआ
है फ़क़त नाम को आज़ादी-ए-इज़हार-ए-ख़याल
वर्ना कब किस के लबों पर यहाँ ताला न हुआ
टूटते शीशे को देखा है ज़माने भर ने
दिल के टुकड़ों का कोई देखने वाला न हुआ
जिस ने परखा उन्हें वो थी कोई बे-जान मशीन
दिल के ज़ख़्मों का बशर देखने वाला न हुआ
किस क़दर यास-ज़दा है ये हिसार-ए-ज़ुल्मत
दिल जलाए भी तो हर सम्त उजाला न हुआ
दश्त-ए-ग़ुर्बत के सफ़र की ये अज़िय्यत-नाकी
ख़ुश्क तलवों का अभी एक भी छाला न हुआ
ज़ब्त का हद से गुज़र जाना यही है 'अख़्तर'
दिल सुलगता है मगर होंटों पे नाला न हुआ
Our suggestion based on your choice
As you were reading Shayari by Akhtar Madhupuri
our suggestion based on Akhtar Madhupuri
As you were reading Miscellaneous Shayari