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Top 10 of
Ahmad Azeem
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Ahmad Azeem
ख़िज़ाँ में सूख भी सकती है फुलवारी हमारी
सुख़न-कारी में देखे कोई गुल-कारी हमारी
इक ऐसी सिंफ़ पे मब्नी है फ़नकारी हमारी
छुपाने से नहीं छुपती है दिलदारी हमारी
नहीं मिलते जो हम उन से भी मिलना चाहते हैं
बहुत रुस्वा कराती है मिलन-सारी हमारी
तुम्हारे आने के इम्काँ नज़र आते हैं हम को
ज़ियादा खिल रही है आज फुलवारी हमारी
हम अब मुश्किल-पसंदी की तरफ़ बढ़ने लगे हैं
उसे मुश्किल लगा करती थी हमवारी हमारी
चलो माना कि उस सूरत में भी हम हार जाते
मगर करते तो तुम थोड़ी तरफ़-दारी हमारी
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Ahmad Azeem
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बाँधे अगर जो दुनिया किसी डोर से मुझे
तो खींच लेना अपनी तरफ़ ज़ोर से मुझे
कुछ बोल और काट दे ख़ामोशियों का जाल
वहशत है यार इतने घने शोर से मुझे
दाख़िल हूँ तेरे दिल में दबे पाँव किस तरह
ये काम सीखना है किसी चोर से मुझे
वे पूछे मेरी ख़्वाहिशें तो मैं उसे कहूँ
इक वा'दा चाहिए था तिरी ओर से मुझे
मरने की बात लाया ही था मैं ज़बान पर
ग़ुस्से में उस ने डाँटा बहुत ज़ोर से मुझे
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Ahmad Azeem
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अगर वो पूछे कोई बात क्या बुरी लगी है
ज़ियादा सोचना मत बोल देना जी लगी है
बुरी लगी तिरी मौजूदगी क्लास में आज
कि मेरे बोले बिना तेरी हाज़िरी लगी है
उसे मनाते मनाते मैं रूठने लगा था
फिर उस ने पूछ लिया फ़िल्म कौन सी लगी है
ऐ मौत ठहर ज़रा सब्र कर क़तार में देख
कि तुझ से आगे बहुत आगे ज़िंदगी लगी है
घड़ी में वक़्त घटाते हुए मैं भूल गया
कि यार उस की भी दीवार पर घड़ी लगी है
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Ahmad Azeem
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कोई न डूबे मैं यूँ सहारे बना रहा हूँ
जहाँ भँवर है वहीं किनारे बना रहा हूँ
ये ग़ज़लें सुन के तू अपने ऊपर ग़ुरूर मत कर
मैं वाह वाह ही को इस्तिआ'रे बना रहा हूँ
ये मैं ही कहता था फूल मत तोड़ पर ये गजरे
मैं उस के ग़ुस्से के डर के मारे बना रहा हूँ
सिवा हमारे कोई न समझे हमारी बातें
यूँ गुफ़्तुगू के नए इशारे बना रहा हूँ
जो तुम ने तस्वीर भेजी मेरी अधूरी सी थी
सो उस के चारों तरफ़ शरारे बना रहा हूँ
मुझे बढ़ाना है चाँद तारों के मर्तबे को
सो उस के माथे पे चाँद तारे बना रहा हूँ
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Ahmad Azeem
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बस ख़तरों की ख़ातिर जाने जाते हैं
जिन रस्तों से हम दीवाने जाते हैं
इतनी शोहरत काफ़ी है जीने के लिए
उन की नज़रों में पहचाने जाते हैं
हिम्मत वाले हिज्र में कहते हैं ग़ज़लें
जो बुज़दिल हैं वो मयख़ाने जाते हैं
रोज़ बुझा देते हैं ख़ुद ही तीली को
रोज़ तिरी तस्वीर जलाने जाते हैं
उन को देख के पूरी ग़ज़ल हो जाती है
हम तो बस इक शेर सुनाने जाते हैं
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Ahmad Azeem
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यहाँ पे ढूँडे से भी फ़रिश्ते नहीं मिलेंगे
ज़मीं है साहब यहाँ तो अहल-ए-ज़मीं मिलेंगे
परेशाँ मत हो कि यार टेढ़ी लकीरें हैं हम
कहाँ का तो कुछ पता नहीं पर कहीं मिलेंगे
कुछ ऐसे ग़म हैं जो दिल में हरगिज़ नहीं ठहरते
मकान होते हुए सड़क पर मकीं मिलेंगे
ज़मीं पे मिलने न देंगे हम को ज़माने वाले
चलो कि मरते हैं दोनों ज़ेर-ए-ज़मीं मिलेंगे
हमारे दिल में बनी हुई हैं हज़ारों क़ब्रें
हर एक तुर्बत में दफ़्न ज़िंदा यक़ीं मिलेंगे
रखा गया है हमें कुछ ऐसे मुग़ालते में
वहाँ मिलेंगे जहाँ पे अर्श-ओ-ज़मीं मिलेंगे
हमें तो हूरें मिलेंगी हम से बना के रक्खो
तुम्हें वहाँ पर भी जा के केवल हमीं मिलेंगे
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Ahmad Azeem
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हुस्न-परी हो साथ और बे-मौसम की बारिश हो जाए
छतरी कौन ख़रीदेगा फिर जितनी बारिश हो जाए
ऐसी प्यास की शिद्दत है कि मैं ये दुआएँ करता हूँ
जितने समुंदर हैं दुनिया में सब की बारिश हो जाए
मेरी ग़ज़लें उस के साथ बिताए वक़्त का हासिल हैं
वैसी फ़स्लें उग आती हैं जैसी बारिश हो जाए
छोटे छोटे तालाबों से पानी छीना जाता है
तुम तो बस ये कह देते हो थोड़ी बारिश हो जाए
आँधी आए बिजली कड़के काली घटाएँ छाने लगें
मजबूरन वो रुके मिरे घर इतनी बारिश हो जाए
तंग आया हूँ मैं इस हिज्र-ओ-वस्ल की बूँदा-बाँदी से
या तो सूखा पड़ जाए या ढंग की बारिश हो जाए
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Ahmad Azeem
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अब न सहरा है न दरिया बाक़ी
रह गई चश्म-ए-तमाशा बाक़ी
इन हवाओं ने न छोड़ा अब के
शाख़ पर एक भी पत्ता बाक़ी
छिन गया ज़ो'म-ए-गुल-अफ़्शानी-ए-लब
रह गया होंट पे नौहा बाक़ी
लौट जाने के लिए दश्त-ए-उमीद
अब रहा कोई न रस्ता बाक़ी
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Ahmad Azeem
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उगा वीरानियों का इक शजर आहिस्ता आहिस्ता
शिकस्ता हो गए दीवार-ओ-दर आहिस्ता आहिस्ता
कहाँ जाता है ये सैल-ए-रवान-ए-उम्र-ए-गुम-गश्ता
बहे जाते हैं रोज़-ओ-शब किधर आहिस्ता आहिस्ता
मिरे दिल के ख़राबे को कभी आबाद कर ऐसे
मिरी जाँ के बयाबाँ से गुज़र आहिस्ता आहिस्ता
हुए हम दोनों ख़ाकिस्तर धुआँ उट्ठा न आँच आई
हुई क्यूँकर ज़माने को ख़बर आहिस्ता आहिस्ता
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Ahmad Azeem
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अगर वो पूछे, कोई बात क्या बुरी लगी है
ज़ियादा सोचना मत, बोल देना, जी! लगी है
उसे मनाते मनाते मैं रूठने लगा था
फिर उसने पूछ लिया, फ़िल्म कौन सी लगी है
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Ahmad Azeem
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