दश्त-ए-उम्मीद में ख़्वाबों का सफ़र करना था
तू कि इक लम्हा-ए-नापैद बसर करना था
हम ने क्यूँ आपसी अज़दाद के नुक्ते ढूँडे?
हम ने तो ख़ुद को बहम शीर-ओ-शकर करना था
नक़्श बनता ही नहीं संग-ए-समाअत पे कोई
कुंद अल्फ़ाज़ को फिर तीर-ओ-तबर करना था
साअत-ए-दर्द कि बे-चेहरा ओ बे-नाम रही
क़तरा-ए-अश्क कि महफ़ूज़ गुहर करना था
तिश्नगी माही-ए-बे-आब सी लिख होंटों पर
वर्ना यूँ बोसा-ए-साग़र से हज़र करना था
मुझ पे आयत न कोई लफ़्ज़ ही उतरा 'अहमद'
मेरी मुश्किल कि बयाँ मुझ को सफ़र करना था
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