Naim Hamid Ali

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@naim-hamid-ali

Naim Hamid Ali shayari collection includes sher, ghazal and nazm available in Hindi and English. Dive in Naim Hamid Ali's shayari and don't forget to save your favorite ones.

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  • Ghazal
अगर शाने पे दिन के रात का परचम नहीं होता
ये आलम कुछ भी होता ख़ुशनुमा आलम नहीं होता

किसी सूरत टपकता ज़ख़्म दिल का कम नहीं होता
ये ज़ख़्म-ए-दिल है ये मिन्नत-कश-ए-मरहम नहीं होता

मसर्रत से मसर्रत और ग़म से ग़म नहीं होता
अजब होता है आलम जब कोई आलम नहीं होता

भरोसा नाख़ुदा पे करने वाला डूब जाता है
पुकारे जो ख़ुदा को ग़र्क़-ए-मौज-ए-यम नहीं होता

शहादत पाई है दिल ने फ़िदा-ए-गुल-रुख़ाँ हो कर
शहीदों का हमारे दीन में मातम नहीं होता

ज़हे-क़िस्मत कि आग़ोश-ए-हरम है और हम वर्ना
गुनाहों का सिला तो साग़र-ए-ज़मज़म नहीं होता

'नईम' अपना लिया है हम ने ग़म सारे ज़माने का
कि जब हद से गुज़र जाता है ग़म फिर ग़म नहीं होता
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Naim Hamid Ali
करिश्मा-साज़-ओ-सरापा-बहार है कि नहीं
शबाब-ओ-हुस्न-ए-ग़ज़ल बा-वक़ार है कि नहीं

ख़िज़ाँ का दौर सही ये बताओ अहल-ए-चमन
यक़ीन-ए-आमद-ए-फ़स्ल-ए-बहार है कि नहीं

बजा कि मै-कदा वीराँ है मस्जिदें आबाद
रईस-ए-शहर भी परहेज़-गार है कि नहीं

ज़बाँ ख़तीब की मज़मूँ रईस-ए-शहर का है
नमाज़ियों पे ये राज़ आश्कार है कि नहीं

निगाह चाहिए तहलील-ओ-तज्ज़िये के लिए
ख़िज़ाँ का दौर नवेद-ए-बहार है कि नहीं

हमारा माज़ी-ओ-हाज़िर भी इक मुअ'म्मा है
बहार थी कि नहीं थी बहार है कि नहीं

ग़ज़ल तो कहते हैं सब हम मगर ये देखते हैं
वो कर्ब-ए-अस्र की आईना-दार है कि नहीं

हिजाब मान-ए-जल्वा सही नवेद भी है
ख़िज़ाँ नक़ाब-ए-निगार-ए-बहार है कि नहीं

मदार बख़्शिश-ओ-पुर्सिश का है नियत पे 'नईम'
उमीद-ए-रहमत-ए-परवरदिगार है कि नहीं
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Naim Hamid Ali
निगह रख दी ज़बाँ रख दी मताअ'-ए-क़ल्ब-ओ-जाँ रख दी
मिटा कर अपनी हस्ती पेश-ए-संग-ए-आस्ताँ रख दी

गुमाँ गुज़रा तिरे नक़्श-ए-कफ़-ए-पा का जहाँ रख दी
नहीं ये होश हम को हम ने पेशानी कहाँ रख दी

बनाया और दिल में जोशिश-ए-आतिश-फ़शाँ रख दी
ग़ज़ब की एक मुश्त-ए-ख़ाक ज़ेर-ए-आसमाँ रख दी

वो अब अपना कहें या ग़ैर ज़र्फ़-ए-अहल-ए-गुलशन है
हमें ये फ़ख़्र क्या कम है बिना-ए-गुल्सिताँ रख दी

मिरे सीने में या-रब ये दिल-ए-बेताब क्या कम था
जो इस में एक-तरफ़ा ख़्वाहिश-ए-दीद-ए-बुताँ रख दी

बड़ा ही बोल-बाला था मगर हम अहल-ए-वहशत ने
उड़ा कर एक ही ठोकर में गर्द-ए-आसमाँ रख दी

हुज़ूर-ए-दोस्त कब थी जुरअत-ए-अर्ज़-ए-सुख़न दिल को
बयाँ कर के निगाह-ए-शौक़ ने सब दास्ताँ रख दी

तमाशाई बनाने के लिए आँखें अता की हैं
सना-ख़्वाँ बन के रहने के लिए मुँह में ज़बाँ रख दी

ज़बाँ उर्दू बयाँ दिल-जू और अंदाज़-ए-ग़ज़ल ख़ुशबू
ज़मीन-ए-शेर में कैफ़िय्यत-ए-बाग़-ए-जिनाँ रख दी

मुबारक ये ग़ज़ल कह कर 'नईम' अपने लिए तुम ने
जहान-ए-शेर में बुनियाद-ए-क़स्र-ए-जावेदाँ रख दी
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Naim Hamid Ali
मैं तो कहूँगा बरमला एक दिया बुझा हुआ
इश्क़ न हो तो ज़ीस्त क्या एक दिया बुझा हुआ

आप के साथ बज़्म की रौनक़ें सब चली गईं
सुब्ह-ए-फ़िराक़ रह गया एक दिया बुझा हुआ

पैक-ए-ख़याल दफ़अ'तन पहूँचा हरीम-ए-नाज़ में
आप ही आप जल उठा एक दिया बुझा हुआ

अहल-ए-हवस ने जा-ब-जा कितने दिए बुझा दिए
कोई कहीं जला सका एक दिया बुझा हुआ

जिस में कोई लगन न हो जिस में कोई तड़प न हो
आदमी उस मिज़ाज का एक दिया बुझा हुआ

बज़्म-ए-तरब की यादगार रौनक़-ए-शब की यादगार
एक है साज़-ए-बे-सदा एक दिया बुझा हुआ

अख़्तर-ए-सुब्ह की क़सम मैं भी हूँ सुब्ह का नक़ीब
एक दिया जला हुआ एक दिया बुझा हुआ

महफ़िल-ए-ज़ीस्त में बहुत माह-ओ-नुजूम ज़ौ-फ़िशाँ
इन में मिरा शुमार क्या एक दिया बुझा हुआ
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