Piyush Mishra

Piyush Mishra

@piyush-mishra

Piyush Mishra shayari collection includes sher, ghazal and nazm available in Hindi and English. Dive in Piyush Mishra's shayari and don't forget to save your favorite ones.

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  • Nazm
"शराब नहीं, शराबियत, यानी अल्कोहलिज़्म"

आदत जिसको समझे हो
वो मर्ज़ कभी बन जाएगा
फिर मर्ज़ की आदत पड़ जाएगी
अर्ज़ ना कुछ कर पाओगे
गर तब्दीली की गुंजाइश ने
साथ दिया तो ठीक सही
पर उसने भी गर छोड़ दिया
तो यार बड़े पछताओगे
जो बूँद कहीं बोतल की थी
तो साथ वहीं दो पल का था
फिर पता नहीं कब दो पल का वो
साथ सदी में बदल गया
हम चुप्प बैठके सुन्न गुज़रते
लम्हे को ना समझ सके
वो कब भीगी उन पलकों की
उस सुर्ख़ नमी में बदल गया
और नींद ना जाने कहाँ गई
उन सहमी सिकुड़ी रातों में
हम सन्नाटे को चीर राख से भरा
अँधेरा तकते थे
फिर सिहर-सिहर फिर काँप-काँप के
थाम कलेजा हाथों में
जिसको ना वापस आना था
वो गया सवेरा तकते थे
जिसको समझे हो तुम मज़ाक़
वो दर्द की आदत पड़ जाएगी
अर्ज़ ना कुछ कर पाओगे
गर तब्दीली की गुंजाइश ने
साथ दिया तो ठीक सही
पर उसने भी गर छोड़ दिया
तो यार बड़े पछताओगे
कट-फट के हम बिखर चुके थे
जब तुम आए थे भाई
और सभी रास्ते गुज़र चुके थे
जब तुम आए थे भाई
वो दौर ना तुमसे देखा था
वो क़िस्से ना सुन पाए थे
जिस दौर की आँधी काली थी
जिस दौर के काले साए थे
उस दौर नशे में ज़ेहन था
उस दौर नशे में ये मन था
उस दौर पेशानी गीली थी
उस दौर पसीने में तन था
उस दौर में सपने डर लाते
उस दौर दुपहरी सन्नाटा
उस दौर सभी कुछ था भाई
और सच बोलें कुछ भी ना था
ये नर्म सुरीला नग़मा कड़वी
तर्ज़ कभी बन जाएगा
फिर तर्ज़ की आदत पड़ जाएगी
अर्ज़ ना कुछ कर पाओगे
गर तब्दीली की गुंजाइश ने
साथ दिया तो ठीक सही
पर उसने भी गर छोड़ दिया तो
यार बड़े पछताओगे
उस दौर से पहले दौर रहा
जब साथ ज़िंदगी रहती थी
वो दौर बड़ा पुरज़ोर रहा
जब साथ बंदगी रहती थी
जब साथ क़हक़हों का होता
जब बात लतीफ़ों की होती
और शाम महकते ख़्वाबों की
और रात हसीनों की होती
जब कहे नाज़नीं बोलो साजन
कौर पहर को आऊँ मैं
और हुस्न कहे कि तू मेरा
और तेरा ही हो जाऊँ मैं
बस मैं पागल ना समझ सका
किस ओर तरफ़ को जाना है
बस जाम ने खींचा, बोतल इतराई
कि तुझको आना है
मैं मयख़ाने की ओर चला
ये भूल के पीछे क्या होता
इक नन्हा बचपन सुन्न हिचकियाँ
अटक-अटक के जो रोता
इक भरी जवानी कसक मार के
चुप-चुप बैठी रहती है
और ख़ामोशी से ‘खा लेना कुछ’
नम आँखों से कहती है
उन सहमी सिसकी रातों को मैं
कभी नहीं ना समझ सका
उन पल्लू ठूँसी फफक फफकती
बातों में ना अटक सका
ये कभी-कभार का काम
अटूटा फ़र्ज़ कभी बन जाएगा
फिर फ़र्ज़ की आदत पड़ जाएगी
अर्ज़ ना कुछ कर पाओगे
गर तब्दीली की गुंजाइश ने
साथ दिया तो ठीक सही
पर उसने भी गर छोड़ दिया तो
यार बड़े पछताओगे
वो पछतावे के आँसू भी
मैं साथ नहीं ला पाया था
उन जले पुलों की क्या बोलूँ
जो जला जला के आया था
वो बोले थे कि देखो इसको
ज़र्द-सर्द इंसान है ये
इक ज़िंदा दिल तबियत में बैठा
मुर्दादिल हैवान है ये
मैं शर्मसार तो क्या होता
मैं शर्म जला के आया था
उस सुर्ख़ जाम को सुर्ख़ लार में
नहला कर के आया था
मैं आँख की लाली साथ लहू
मदहोश कहीं पे रहता था
ख़ूँख़ार चुटकले तंज़ लतीफ़े
बना-बना के कहता था
ये दर्द को सहने का झूठा
हमदर्द कभी बन जाएगा
हमदर्द की आदत पड़ जाएगी
अर्ज़ ना कुछ कर पाओगे
गर तब्दीली की गुंज़ाइश ने
साथ दिया तो ठीक सही
पर उसने भी गर छोड़ दिया तो
यार बड़े पछताओगे
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Piyush Mishra
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"मुंबई, सफलता, स्टारडम"

वो चकाचौंध है यार कहीं तुम खो मत जाना...!
वो बिजली की इक कौंध यार
वो बादल की एक ग़रज़ यार
वो चमक मारती... गड़-गड़ करती
आज रवाँ
कल मुर्दा है...
और आज जवाँ
कल बूढ़ी है...
और आज हसीं
कल बदसूरत
और आज पास
कल दूरी है...
वो रेल की छुक-छुक जैसी है
जो दूर-दूर को जाते-जाते
बहुत दूर खो जाती है...
और धुन उसकी बस आस-पास की
पटरी पे रो जाती है...
वो कोहरे वाली रात को जाते
राहगरी के जूतों की
वैसी वाली-सी खट्-खट् है
जो दरवाज़े के पास गुज़रती
चौंकाती झकझोर मारती...
भरी नींद की तोड़ मारती
कानों से टकराती है...
और फिर इकदम
उस धुप्प अँधेरे
के अंदर घुस जाती है...!
वो बूढ़े चौकीदार की सूजी
थकन भरी आँखों में आई
नींद की वैसी झपकी है...
जो रात में पल-पल आती है...
पर मालिक की गाड़ी के तीखे
हॉर्न की चीख़ी पौं-पौं में
इक झटके में भग जाती है...!
वो भरी जवानी की बेवा की
आँख में बैठी हसरत है...
जो बाल खोल
उजली साड़ी में...
भरी महकती काया ले
सूनापन तकती जाती है...
जो कसक मारती... भरे गले में
फँसती-दबती मुश्किल से
बस इक पल को ही आ पाती है...
और दूजे पल ही
टूट पड़ी चूड़ी की छन्नक छन्न-छन्न से
बिखर-बिखर को जाती है...!
...खोज में जिसकी जाते हो
उसको इक पल... थोड़ा टटोल के
हाथ घुमा के... ज़रा मोड़ के
पैंट के पिछले पॉकेट में भी
छूने की कोशिश करना...!
ऐसा ना हो कि खोज तुम्हारे अंदर ही बैठी हो और बस...
किसी वजह से लुकी-छिपी हो...!
खोजे जाने के डर से शायद
तुमसे ही कुछ डरी-डरी हो...!
गर आँख खोल के देखोगे तो दिख जाएगी...
पर अँधे हो के देख लिया
तो याद हमेशा रखना ये
कि पास तुम्हारे आज अगर
तो कल तक के आते-आते
वो धुँधली भी हो सकती है
और परसों तक तो पक्का ही
हाथों से भी खो सकती है...
वो चकाचौंध है यार
कहीं तुम खो मत जाना...
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Piyush Mishra
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"लेकिन प्रोड्यूसर्स ही बेवक़ूफ़ निकले"

रात है नशे में... चाँद थामे बोतल
ये ही पल है अपने... इनको जी ले दो पल
ये खारे-मीठे सपने... ये ज़िंदगी का टोटल
बोतल के... दो पल... हैं टोटल
मसख़रा समाँ है... बेवड़ा जहाँ है
ज़िंदगी का पहिया... साला घिस रहा यहाँ है
जिस दुकाँ पे दिल है... साली वो दुकाँ कहाँ है
यहाँ की... दुकाँ वो... कहाँ है
रात है नशे में... चाँद थामे बोतल

ये रात... कह रही है... हमसे चल पड़ो
कोई... मिला... तो रुक के पूछ लेंगे भई हलो
ख़ैरियत तो है
या कुछ मलाल है
आदमी का आजकल
कैसा हाल है...
कभी मिले तो बोलना... कि हम भी ठीक-ठाक हैं
आदमी का क्या है... वो ठीकइच होगा
टुटेला-सा फुटेला... सड़क के बीच होगा
उसको है पकड़नी... साली पाँच दो की लोकल
लोकल से... होटल से... लोकल
रात है नशे में... चाँद थामे बोतल
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"शर्म कर लो"

ज़िंदा हो हाँ तुम कोई शक नहीं
साँस लेते हुए देखा मैंने भी है
हाथ औ’ पैरों और जिस्म को हरकतें
ख़ूब देते हुए देखा मैंने भी है
अब भले हो ये करते हुए होंठ तुम
दर्द सहते हुए सख़्त सी लेते हो
अब है इतना भी कम क्या तुम्हारे लिए
ख़ूब अपनी समझ में तो जी लेते हो
गहराती रातों में उठती कराहट को
अंदर ही अंदर दबाते तो होगे
अगली सुबह फिर बरसने को बेताब
कोड़ों को दिल में सजाते तो होगे
ज़माने की ठोकर को सह के सड़क पे यूँ
चीख़ों को दिल में सजाते तो होगे
ज़माने की ठोकर को सह के सड़क पे यूँ
चीख़ों की ज़हमत उठाते तो होगे
रोते से चेहरे पे लटकी-सी गर्दन का
थोड़ा इज़ाफ़ा बढ़ाते तो होगे
सोचा कभी है कि ज़िंदा यूँ रहने के
मतलब के माने हैं कैसे कहीं
ज़िंदा यूँ रहने के माने पे थूकें जो
ज़िंदा यूँ रहने का मतलब यही
बदबू को बलग़म को ख़ुशबू की मरहम
बता के भरम में हो मल-मल रहे
कीड़ा है वो संग कीड़ों की दुनिया में
कीड़ा ही बन के जो हर पल रहे
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Piyush Mishra
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"बड़ी लंबी कहानी है यार"

ये दास्ताँ लंबी कि इतनी
बीच में थक जाऊँगा
तुम क्या सुनोगी कब तलक
मैं क्या बयाँ कर पाऊँगा!
अब देख लेते हैं कि जानम
साथ में उम्मीद का
ये पल सुनहरा मिल गया है
इत्तेफ़ाक़न नींद का
तुम आँख मूँदे सो रहो
मैं भी ज़ुबाँ को तब तलक
अच्छे से दूँ कुछ लफ़्ज़ वरना
बदज़ुबाँ हो जाऊँगा
तुम क्या सुनोगी कब तलक
मैं क्या बयाँ कर जाऊँगा
तुम क्या सुनोगी कब तलक
मैं क्या बयाँ कर पाऊँगा!
ये रात है लंबी इतनी कि
ख़्वाब में कट जाएगी
कि दास्तानें बढ़ चलेंगी
नींद भी ना आएगी...
तुम नींद की चिंता करो ना
आज वादा है मेरा
तुम सोच भी सकती नहीं मैं
क्या सुनाकर जाऊँगा
तुम क्या सुनोगी कब तलक
मैं क्या बयाँ कर पाऊँगा...
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Piyush Mishra
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"चाँदनी चौक की फ़ैक्टरी और मज़दूर"

गिटर-पिटर यूँ धूँ-धक्कड़
ये गुत्थम-गुत्थी चटर-पटर
ये दंगल लाशें ज़ोर-जबर
ये हड्डी घिस के चरर-परर...
पट्ठे उठ जा तू ताल ठोक
ये पसली में जा घुसी नोक
ये खाँसी तगड़ी ज़ोरदार
ये एसिड संग में कोलतार...
अजब दास्ताँ है लेकिन
ये घिसती रातें पिसते दिन
दिन का पहिया रात का चक्का
रेशा-रेशा हक्क-बक्का...!
ये पीठ है लकड़ी सख़त-सख़त
ये सौ मन बोरी पटक-पटक
ये काली-काली क्रीम जमा
ये पॉलिश कर के खाए दमा...
अरे उठ साले कि दिन चढ़ता
फिर आई दुपहरी देख भरी
ये खौं-खौं खाँसी रेत भरी...
अजब दास्ताँ है लकिन
ये घिसती रातें पिसते दिन
दिन का पहिया रात का चक्का
रेशा-रेशा हक्का-बक्का...!
ये निकला बलग़म थूकों में
इक रोटी है सौ भूखों में
उस पे हैं क़र्ज़े लाख चढ़े
ये सूद-ब्याज बिंदास बढ़े
भट्ठी की चाँदनी चम-चम-चम
इक हुआ फेफड़ा कम-कम-कम
स्टील कटर से कटे हाथ
तेज़ाब गटर नायाब साथ
अजब दास्ताँ है लेकिन
ये घिसती रातें पिसते दिन
दिन का पहिया रात का चक्का
रेशा-रेशा हक्का-बक्का...!
ना ग्लास मास्क ना चश्मा भई
लाशों के ढेर पे सपना भई
सीलन घुटती अब सड़न-सड़न
बदबू साँसें अरे व्हाट ए फ़न...
फिर दिन टूटा फिर शाम बढ़ी
फिर सूनी सुनसाँ रात चढ़ी
ये बदन टूट पुर्ज़ा-पुर्ज़ा
ये थकन कहे मर जा मर जा...
अजब दास्ताँ है लेकिन
ये घिसती रातें पिसते दिन
दिन का पहिया रात का चक्का
रेशा-रेशा हक्का-बक्का...!
साले कुत्ते हर्रामी तू
बदज़ात चोर है नामी तू
तेज़ाब जलन पस फफ्फोले
इक रात बिताने घर हो ले...
भट्ठी की आग में मांस जला
ये खाल खिंची और साँस जला
ये पेट कटी आँतें बोलें
आधी पूरी बातें बोलें...
अजब दास्ताँ है लेकिन
ये घिसती रातें पिसते दिन
दिन का पहिया रात का चक्का
रेशा-रेशा हक्का-बक्का...
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Piyush Mishra
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"जीना इसी का नाम है"

दर-ब-दर की ठोकरों का लुत्फ़ पूछो क्या सनम
आवारगी को हमने तो अल्लाह समझ लिया...!
ज़िंदगी से बात की इक कश लिया फिर चल दिए
ज़िंदगी को धुएँ का छल्ला समझ लिया...
वक़्त से यारी हमारी जम नहीं पाई कभी
वो जो मिला हमको नहीं
बोला वो करता था यही...
कि संग चल ओ यार मेरे संग चल हाँ संग चल
तू छोड़ परवाह और कुछ बस संग चल बस संग चल...
हर आह मीठी हो पड़ेगी जो रहूँगा साथ मैं
हर राह सीधी हो पड़ेगी जो रहूँगा साथ मैं...
मैं पर्वतों के इस सिरे से उस सिरे तक ले चलूँ
कि जिस सिरे पे बैठने का ख़्वाब पाले बैठा तू!
पर क्या बताएँ हमको तो आदत ही कुछ ऐसी पड़ी
वो बात करता रास्तों की हम करे पगडंडी की...
वो जन्नतों की बात करता हम ये कह देते मियाँ
कि दोज़ख़ों का भी लगे हाथों ना ले लें जायज़ा...?
वो पक गया वो चट गया
फिर एक दिन बोला यही...
कि बिन मेरे तू क्या करेगा
तूने सोचा है कभी...?
...अब हमने भी फिर ज़ोर डाला थोड़ा-सा दिम्माग़ पर
और बोले क्यों ना कश लगा लें इक तुम्हारी बात पर...
होंठ के आगे ये अंगारा सुलग जो जाएगा
तो आग पे सोचेंगे सोचो लुत्फ़ आएगा...
वो बोला कि बस पंगा यही
ये आग मुझको दे दे तू
फिर जो कहेगा तेरे क़दमों में पड़ा
है शर्त यूँ...
तो हम भड़क के हट लिए और हम कड़क के फट लिए
कि एक तो तूने हमें निठल्ला समझ लिया...
अरे सौदे हमने भी किए हैं जो हमें तूने यूँ ही
इक नातजुर्बेकार-सा दल्ला समझ लिया...
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