वफ़ा के बदले तू ने बेवफ़ाई की
तिरे हक़ में तो भी मैंने दुहाई दी
ज़मीं पे आ गिरा पंखा मिरे हाथों
तिरे शायर ने इक ऐसी लड़ाई की
दबे थे फूल जितने भी किताबों में
सभी को रद्दी वाले ने रिहाई दी
रहे ग़ज़लें मिरी ग़मगीन यूँ ही सो
मिरे दुश्मन से तक उसने सगाई की
नहीं माना था इतना भी ग़लत तुझको
मगर फिर तू ने ही इतनी सफ़ाई दी
तलफ़्फ़ुज़ को बुरा कहती तो कोई ना
मगर उसने ख़यालों की बुराई की
बड़े मन से मिरी ग़ज़लें तू सुनती है
तुझे मेरी कभी चीखें सुनाई दी
उसी की मर्ज़ी से होगा अँधेरा भी
उसी ने सामने से रौशनाई की
मुसीबत में सँभाला उसने मुझको यूँ
भरी सर्दी में मानो इक रजाई दी
हमारी शाइरी में इसलिए दुख है
मुहब्बत ने हमारी जग-हँसाई की
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