इन बहारों में कोई ऐसे बचे पत्ते नहीं हैं
जो हवा के इम्तियाज़-ए-हुस्न से हिलते नहीं हैं
सारी बरकत जलने वालों की दुआ से है यहाँ पर
वर्ना अपना कहने वाले याद भी करते नहीं हैं
गर तुझे मुझको जगह देनी है अपनी रूह में दे
हम भी तो अब हर किसी की रूह में बसते नहीं हैं
करके भी अब ज़िद से क्या ही होगा हासिल इश्क़ मुझको
जो बहुत शिद्दत से करते हैं वो अब मिलते नहीं हैं
पास होकर उनसे मेरा फ़ासला बढ़ क्यों रहा ये
उनकी मर्ज़ी है या मुझको खोने से डरते नहीं हैं
उनके आ जाने से अब क्यों उड़ गए ये बाग़-भँवरे
अपनी आदत से मुझे वो ऐसे तो लगते नहीं हैं
ये ख़ुदा का शुक्र है हम मर गए तुम पे नहीं तो
हम वो थे जो ज़हर खा के भी कभी मरते नहीं हैं
कुछ नहीं है अब मुसाफ़िर तेरे गुलदस्ते में महफ़ूज़
अब तो वो तेरी ख़मोशी भी कभी पढ़ते नहीं हैं
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