अंधों को अब ग़लतियाँ दिखने लगी हैं फिर से मरयम
बहरों की भी उँगलियाँ अब उठ रही हैं मुझ पे मरयम
क्यों हुई है इतनी रग़बत अहल-ए-मरयम से मुझे फिर
ये नहीं मालूम क्यों पर चाहता हूँ दिल से मरयम
कुछ भी करने जाता हूँ तो तुम दिखाई देती हो बस
मुझ पे अब ये कैसा जादू कर दिया है तुमने मरयम
गर ज़रा सा ख़ौफ़, लगने को हो तो मुझको बताओ
तुमको लगता है कि पापा शादी को मानेंगे मरयम
इश्क़ सच्चा करती हो तुम पर निभाती क्यों नहीं हो
जाओ अपना वक़्त ज़ाया मत करो अब मुझ पे मरयम
तुम वही हो कल जो क़समें खाती थी उलफ़त की अपनी
फिर ये क्यों क्यों निभ न पायी इक क़राबत तुम से मरयम
क्या लगाएगा कोई अंदाज़ा मेरे दर्द का अब
ख़ुद की मैने क़ब्र खोदी ऐसे मंज़र देखे मरयम
मैंने सोचा था तुझे जाया बनाने का मगर फिर
क्या बताता हाथ पीले हो चुके थे तेरे मरयम
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