किसी की आँख के तारे, किसी के माह-पारे थे
किसी की ना-मुकम्मल सी ग़ज़ल के इस्तियारे थे
हवा ने नाम किस का रेत पर अब के उकेरा है
बगूलों की ज़ुबाँ पे कल तलक किस्से हमारे थे
घटा के होंठ पर आई मिरी आहों की गर्जन थी
छतों की आँख से गिरते मिरी अश्कों के धारे थे
फ़ज़ा ने हस्र बरपाया,ख़िज़ाँ ने अश्क़-बारी की
फ़लक़ के जिस्म को छूते ज़मीनों के ग़ुबारे थे
भटकते दर-ब-दर याँ-वाँ हुए थे ख़ाक-आलूदा
बहाल-ए-सग तिरे कूचे में हम ने दिन गुज़ारे थे
सर-ए-सहरा गिरे थक कर तो बस्ती का ख़याल आया
बड़ी तुर्फ़ा जगह थी वो बड़े तुर्फ़ा नज़ारे थे
हमारे दिल के इक कोने में थी शादाबियाँ,वाँ पर
फ़क़त हस्ती तुम्हारी थी,फ़क़त जल्वे तुम्हारे थे
नज़र के सामने चेहरा तुम्हारा था,लगा जैसे
जहाँ सूखी हुई धरती वहीं पर अब्र-पारे थे
समन्दर की निगाहों में फ़क़त वुस'अत थी दुनिया की
नदी के ख़्वाब में आते समन्दर के किनारे थे
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