बड़े ख़ुलूस से मुझ से सलाम करते हैं
न जाने क्यों वो मेरा एहतिराम करते हैं
अदा-ओ-नाज़ से जीना हराम करते हैं
सितम ये है कि सितम वो मुदाम करते हैं
कभी-कभी तेरे ख़्वाब-ओ-ख़याल से हट कर
जुनूँ में ख़ुद से ही ख़ुद ही कलाम करते हैं
बिछड़ गए हैं कई साल क़ब्ल ही लेकिन
वो कू-ए-दिल में अभी तक ख़िराम करते हैं
मैं सुन रहा हूँ मगर कुछ यक़ीं नहीं आता
कि मुझको याद वो अब सुब्ह-ओ-शाम करते हैं
मिले न एक किरन भी मगर हक़ीक़त है
कि हम भी ख़्वाहिश-ए-माह-ए-तमाम करते हैं
मैं ख़्वाब देख रहा हूँ वहाँ गया हूँ मैं
मिरे क़याम का वो इंतिज़ाम करते हैं
बदल के मक़्ते में शादाब शेर-ए-आख़िर को
चलो ग़ज़ल का यहीं इख़्तिताम करते हैं
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