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हमारी चश्म-ए-तर क़तरा बहाने को नहीं कहती - Raghav Prakash Mishra

हमारी चश्म-ए-तर क़तरा बहाने को नहीं कहती
मेरे दिल की हिकायत लब पे आने को नहीं कहती

मैं अपनी माँ की नज़रों में वही मासूम बच्चा हूँ
मेरी अम्मी मुझे अब तक कमाने को नहीं कहती

बहुत हमदर्द भी होते हैं ये तक़रीब मुफ़लिस के
हमारी ईद भी हम से मनाने को नहीं कहती

कोई ख़ातून मेरी तीरगी में बैठी है अब तक
वो आने वालों से शम'अ जलाने को नहीं कहती

एक लड़की जो दरवाजे पे अक्सर बात करती है
वही लड़की जो मुझसे घर में आने को नहीं कहती

जिसे भी आज़माया वो कभी हमदर्द न निकला
रिफ़ाक़त कब किसी को आज़माने को नहीं कहती

- Raghav Prakash Mishra

Maa Shayari

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