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जगह बाकी कहाँ आज़ार की है - Raghav Prakash Mishra

जगह बाकी कहाँ आज़ार की है
ज़िंदगी यूँ किसी ने ख़्वार की है

हम ऐसे एहतियातन जी रहे हैं
जैसे कि ज़िंदगी उधार की है

उम्र सारी बसर यादों में की है
अब जो बाकी है इंतज़ार की है

कभी हक़ तुझपे चाहा था मगर अब
आरजू ख़ुद पे इख़्तियार की है

हमारी क़ुर्बतों के बीच जानाँ
जगह अब भी किसी दीवार की है

मेरा भी घर हुआ करता था यारों
बात जंगल के ये उस पार की है

मुझे तुमसे क्या चाहिए खुदाओं
ज़रूरत थोड़े से ऐतबार की है

- Raghav Prakash Mishra

Aarzoo Shayari

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