जगह बाकी कहाँ आज़ार की है
ज़िंदगी यूँ किसी ने ख़्वार की है
हम ऐसे एहतियातन जी रहे हैं
जैसे कि ज़िंदगी उधार की है
उम्र सारी बसर यादों में की है
अब जो बाकी है इंतज़ार की है
कभी हक़ तुझपे चाहा था मगर अब
आरजू ख़ुद पे इख़्तियार की है
हमारी क़ुर्बतों के बीच जानाँ
जगह अब भी किसी दीवार की है
मेरा भी घर हुआ करता था यारों
बात जंगल के ये उस पार की है
मुझे तुमसे क्या चाहिए खुदाओं
ज़रूरत थोड़े से ऐतबार की है
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