मिरी हयात के सहरा में छाँव जैसा था
अजीब शख़्स था ठंडी हवाओं जैसा था
खुला ही रहता था हर-दम गुलाब की सूरत
मिज़ाज उस का चमन की फ़ज़ाओं जैसा था
उसी ज़माने में रहता हूँ हर ज़माने में
वो जब बदन पे गुलों की क़बाओं जैसा था
ये उस की याद तपाँ क्यूँ है धूप सी 'फ़ाख़िर'
वो बेवफ़ा तो बरसती घटाओं जैसा था
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