किस मुहूरत में दिन निकलता है
शाम तक सिर्फ़ हाथ मलता है
वक़्त की दिल्लगी के बारे में
सोचता हूं तो दिल दहलता है
दोस्तों ने जिसे डुबोया हो
वो ज़रा देर से संभलता है
हमने बौनों की जेब में देखी
नाम जिस चीज़ का सपलता है
तन बदलती थी आत्मा पहले
आजकल तन उसे बदलता है
एक धागे की बात रखने को
मोम का रोम-रोम जलता है
काम चाहे ज़ेहन से चलता हो
नाम दीवानगी से चलता है
उस शहर में आग की है कमी
रात-दिन जो धुआं उगलता है
उसका कुछ तो इलाज करवाओ
उसके व्यवहार में सरलता है
सिर्फ़ दो चार सुख उठाने को
आदमी बारहां फिसलता है
याद आते हैं शेर 'राही' के
दर्द जब शायरी में ढलता है
Our suggestion based on your choice
As you were reading Shayari by Balswaroop Rahi
our suggestion based on Balswaroop Rahi
As you were reading Waqt Shayari