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किस मुहूरत में दिन निकलता है  - Balswaroop Rahi

किस मुहूरत में दिन निकलता है
शाम तक सिर्फ़ हाथ मलता है

वक़्त की दिल्लगी के बारे में
सोचता हूं तो दिल दहलता है

दोस्तों ने जिसे डुबोया हो
वो ज़रा देर से संभलता है

हमने बौनों की जेब में देखी
नाम जिस चीज़ का सपलता है

तन बदलती थी आत्मा पहले
आजकल तन उसे बदलता है

एक धागे की बात रखने को
मोम का रोम-रोम जलता है

काम चाहे ज़ेहन से चलता हो
नाम दीवानगी से चलता है

उस शहर में आग की है कमी
रात-दिन जो धुआं उगलता है

उसका कुछ तो इलाज करवाओ
उसके व्यवहार में सरलता है

सिर्फ़ दो चार सुख उठाने को
आदमी बारहां फिसलता है

याद आते हैं शेर 'राही' के
दर्द जब शायरी में ढलता है

- Balswaroop Rahi

Waqt Shayari

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