रिश्तों के जब तार उलझने लगते हैं
आपस में घर-बार उलझने लगते हैं
माज़ी की आँखों में झाँक के देखूँ तो
कुछ चेहरे हर बार उलझने लगते हैं
साल में इक ऐसा मौसम भी आता है
फूलों से ही ख़ार उलझने लगते हैं
घर की तन्हाई में अपने-आप से हम
बन कर इक दीवार उलझने लगते हैं
ये सब तो दुनिया में होता रहता है
हम ख़ुद से बे-कार उलझने लगते हैं
कब तक अपना हाल बताएँ लोगों को
तंग आ कर बीमार उलझने लगते हैं
जब दरिया का कोई छोर नहीं मिलता
कश्ती से पतवार उलझने लगते हैं
कुछ ख़बरों से इतनी वहशत होती है
हाथों से अख़बार उलझने लगते हैं
कोई कहानी जब बोझल हो जाती है
नाटक के किरदार उलझने लगते हैं
Our suggestion based on your choice
As you were reading Shayari by Bharat Bhushan Pant
our suggestion based on Bharat Bhushan Pant
As you were reading Duniya Shayari