अश्क़-ओ-ख़ून घुलते हैं तब दीदा-ए-तर बनती है
दास्तान इश्क़ में मरने से अमर बनती है
चीख़ पड़ता है मुसव्विर सभी रंगों के साथ
कैनवस पर मेरी तस्वीर अग़र बनती है
इतना आसान नही होता है दिन का आना
डूब जाते हैं सितारे तो सहर बनती है
सबको हासिल है ये बीनाई की दौलत लेकिन
देखने वाली तो मुश्किल से नज़र बनती है
टक-टकी बाँध के बैठें हैं वहीं रातों में
तेरी तस्वीर दीवारों पे जिधर बनती है
पूछते फिरते हैं शहर में अब तो 'जानी'
यार टूटी हुई तक़दीर किधर बनती है
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