Bahram ji

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@bahram-ji

Bahram ji shayari collection includes sher, ghazal and nazm available in Hindi and English. Dive in Bahram ji's shayari and don't forget to save your favorite ones.

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  • Ghazal
कब तसव्वुर यार-ए-गुल-रुख़्सार का फ़े'अल-ए-अबस
इश्क़ है इस गुलशन-ओ-गुलज़ार का फ़े'अल-ए-अबस

निकहत-ए-गेसू-ए-ख़ूबाँ ने किया बे-क़द्र उसे
अब है सौदा नाफ़ा-ए-तातार का फ़े'अल-ए-अबस

रिश्ता-ए-उलफ़त रग-ए-जाँ में बुतों का पड़ गया
अब ब-ज़ाहिर शग़्ल है ज़ुन्नार का फ़े'अल-ए-अबस

आरज़ू-मंद-ए-शहादत आशिक़-ए-सादिक़ हुए
ग़ैर को डर है तिरी तलवार का फ़े'अल-ए-अबस

जब दिल-ए-संगीं-दिलाँ में कुछ असर होता नहीं
गिर्या है इस दीदा-ए-ख़ूँ-बार का फ़े'अल-ए-अबस

ख़्वाब में भी यार को इस का ख़याल आता नहीं
जागना था दीदा-ए-बेदार का फ़े'अल-ए-अबस

ख़ाली-अज़-हिकमत हुआ 'बहराम' कब फ़ेल-ए-हकीम
काम कब है दावर-ए-दादार का फ़े'अल-ए-अबस
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Bahram ji
दुनिया में इबादत को तिरी आए हुए हैं
पर हुस्न-ए-बुताँ देख के घबराए हुए हैं

अफ़्सोस इबादत न तिरी हो सकी हम से
गर्दन नहीं उठती है कि शरमाए हुए हैं

इल्ज़ाम नहीं तूर जो सुर्मा हुआ जल कर
मूसा भी तजल्ली से तो शरमाए हुए हैं

मैं बरहमन ओ शैख़ की तकरार से समझा
पाया नहीं उस यार को झुँझलाए हुए हैं

काबे से न रग़बत हमें ने दैर की ख़्वाहिश
हम ख़ाना-ए-दिल में जो उसे पाए हुए हैं

है कौन सी जा हो जो तिरे जल्वे से ख़ाली
मज़मून हम अब दिल में यही लाए हुए हैं

ज़िल्लत के ख़रीदार हुए हिर्स के बंदे
हाजत के लिए हाथ जो फैलाए हुए हैं

जिस क़ौम में देखा तो तजस्सुस तिरा पाया
मअ'बद तिरे हर क़ौम में ठहराए हुए हैं

'बहराम' ग़ज़ल और भी इक उन को सुना दे
मुश्ताक़ तिरी बज़्म में सब आए हुए हैं
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Bahram ji
ग़मगीं नहीं हूँ दहर में तो शाद भी नहीं
आबाद अगर नहीं हूँ तो बर्बाद भी नहीं

मिलती तिरी वफ़ा की मुझे दाद भी नहीं
मजनूँ नहीं है दहर में फ़रहाद भी नहीं

कहता है यार जुर्म की पाते हो तुम सज़ा
इंसाफ़ अगर नहीं है तो बे-दाद भी नहीं

इंसाँ की क़द्र क्या है जो हो तेरे रू-ब-रू
तेरे मुक़ाबले में परी-ज़ाद भी नहीं

अफ़सोस किस से यार की खिंचवाइए शबीह
'मानी' नहीं जहाँ में है 'बहज़ाद' भी नहीं

करता है उज़्र-ए-जौर-ओ-जफ़ा यार तू अबस
होना जो था हुआ वो हमें याद भी नहीं

कुश्ता हुआ हूँ अबरू-ए-ख़मदार-ए-यार का
मेरे लिए ज़रूरत-ए-जल्लाद भी नहीं

हसरत भरे हुए गए दुनिया से सैकड़ों
तस्दीक़ किस से कीजिए शद्दाद भी नहीं

'बहराम' मेरे ज़ोर-ए-तबीअत से है सुख़न
शागिर्द मैं नहीं हूँ तो उस्ताद भी नहीं
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Bahram ji
कुफ़्र एक रंग-ए-क़ुदरत-ए-बे-इंतिहा में है
जिस बुत को देखता हूँ वो याद-ए-ख़ुदा में है

आशिक़ है जो कि जामा-ए-सिदक़-ओ-सफ़ा में है
माशूक़ है जो पर्दा-ए-हिल्म-ओ-हया में है

आलम है मस्त सज्दा-ए-जानाँ में ता-अबद
मस्ती बला की बादा-ए-''कालू-बला'' में है

ईमाँ है अक्स-ए-रुख़ तो है गेसू का अक्स-ए-कुफ़्र
वो कौन चीज़ है जो तिरी मा-सिवा में है

अबरू के महव काबे में सूरत के दैर में
उश्शाक़ रुख़ का सिलसिला नूर-ओ-ज़िया में है

बे-जल्वा-गाह-ए-यार कहाँ ये रुजू-ए-ख़ल्क़
बहस-ए-फ़ुज़ूल बरहमन-ओ-पारसा में है

जूया है बस कि आरिज़-ओ-गेसू-ए-यार का
पाबंद शैख़ सज्दा-ए-सुब्ह-ओ-मसा में है

रफ़्तार मोजज़ा है तो है सेहर चाल में
शोख़ी अजब तरह की तिरे नक़्श-ए-पा में है

तेरी तरफ़ को मुस्लिम ओ काफ़िर की है रुजू
पूजा में बरहमन है तो ज़ाहिद दुआ में है

मक़्तूल लाखों हो चुके शाएक़ हज़ार-हा
लज़्ज़त अजीब यार की तेग़-ए-जफ़ा में है

इक पेच-ओ-ख़म में गब्र-ओ-मुसलमाँ हैं मुब्तला
वुसअत बला की यार की ज़ुल्फ़-ए-रसा में है

'बहराम' आशिक़ाना ग़ज़ल एक और भी
क़ुव्वत अभी बहुत तिरी फ़िक्र-ए-रसा में है
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Bahram ji
जो है याँ अासाइश-ए-रंज-ओ-मेहन में मस्त है
कूचा-ए-जानाँ में हम हैं क़ैस बन में मस्त है

तेरे कूचे में है क़ातिल रक़्स-गाह-ए-आशिक़ाँ
कोई ग़लताँ सर-ब-कफ़ कोई कफ़न में मस्त है

मय-कदे में बादा-कश बुत-ख़ाने में हैं बुत-परस्त
जो है आलम में वो अपनी अंजुमन में मस्त है

निकहत-ए-ज़ुल्फ़-ए-सनम से याँ मोअत्तर है दिमाग़
कोई मुश्क-चीं कोई मुश्क-ए-ख़ुतन में मस्त है

है कोई महव-ए-नमाज़ और ख़ुम-कदे में कोई मस्त
दिल मिरा इश्क़-ए-बुतान-ए-दिल-शिकन में मस्त है

है मुसलमाँ को हमेशा आब-ए-ज़मज़म की तलाश
और हर इक बरहमन गंग-ओ-जमन में मस्त है

अक्स-ए-रू-ए-शम्अ-रू है मेरे दिल में जा-गुज़ीं
दिल मिरा इस आतिश-ए-लम'आ-फ़गन में मस्त है

है मिरा हर शेर-ए-तर 'बहराम' कैसा पुर-असर
जिस को देखो मज्लिस-ए-अहल-ए-सुख़न में मस्त है
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Bahram ji
हम न बुत-ख़ाने में ने मस्जिद-ए-वीराँ में रहे
हसरत-ओ-आरज़ू-ए-जल्वा-ए-जानाँ में रहे

ख़ूँ है वो जिस से कि हो दामन-ए-क़ातिल रंगीं
ख़ून फ़ासिद है जो ख़ाली सर-ए-मिज़्गाँ में रहे

हम ने मस्नूअ से साने की हक़ीक़त पाई
बे-सबब हम नहीं नज़्ज़ारा-ए-ख़ूबाँ में रहे

सुब्ह ख़ुर्शीद को देखा हवस-ए-आरिज़ में
शाम से रौशनी-ए-शम्-ए-शबिस्ताँ में रहे

तोड़ा ज़ुन्नार को तस्बीह को फेंका हम ने
इश्क़-ए-रुख़ था हवस-ए-नूर-ए-दरख़्शाँ में रहे

जा-ब-जा हम को रही जल्वा-ए-जानाँ की तलाश
दैर-ओ-काबा में फिरे सोहबत-ए-रहबाँ में रहे

ख़ल्वत-ए-दिल की न कुछ क़द्र को समझे हाजी
तौफ़-ए-काबा के लिए दश्त-ओ-बयाबाँ में रहे

उन असीरों को हुइ क़ैद-ए-तअय्युन से नजात
जो कि पाबंद तिरे गेसू-ए-पेचाँ में रहे

इस ज़मीं में ग़ज़ल इक और भी लिक्खो 'बहराम'
ये दो-गज़ला तो भला आप के दीवाँ में रहे
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Bahram ji
बहस क्यूँ है काफ़िर-ओ-दीं-दार की
सब है क़ुदरत दावर-ए-दव्वार की

हम सफ़-ए-''क़ालू-बला'' में क्या न थे
कुछ नई ख़्वाहिश नहीं दीदार की

ढूँढ कर दिल में निकाला तुझ को यार
तू ने अब मेहनत मिरी बे-कार की

शक्ल-ए-गुल में जल्वा करते हो कभी
गाह सूरत बुलबुल-ए-गुलज़ार की

आप आते हो कभी सुब्हा-ब-कफ़
करते हो ख़्वाहिश कभी ज़ुन्नार की

लन-तरानी आप की मूसा से थी
हर जगह हाजत नहीं इंकार की

ख़ास हैं मक़्तूल-ए-शमशीर-ए-जफ़ा
कुछ तो लज़्ज़त है तिरी तलवार की

दैर-ओ-काबा में कलीसा में फिरे
हर जगह हम ने तलाश-ए-यार की

सब की है तक़दीर तेरे हाथ में
क्या शिकायत मुस्लिम ओ कुफ़्फ़ार की

हम में जौहर थे इबादत ख़ास के
कर दिया इंसाँ ये मिट्टी ख़्वार की

महर-ओ-मह को उम्र भर देखा किए
थी तमन्ना रू-ए-पुर-अनवार की

और ऐ 'बहराम' इक लिक्खो ग़ज़ल
आप को क़िल्लत नहीं अशआर की
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Bahram ji